वर्तमान परिस्थितियां और हम
बहुत पहले मैंने एक घटना पढ़ी थी।मैंने पढा था कि एक अमावस की रात्रि थी और एक व्यक्ति शराब पीने के उद्देश्य से मधुशाला जाने को तैयार हुआ।जाते समय उसने सोचा की जब मैं रात को लौटूंगा, काफी अँधेरा हो गया रहेगा, मैं नशे में भी होऊंगा, रास्ते पर घना अँधेरा पसरा होगा,अतः सुरक्षा के लिए मैं साथ में लालटेन लेता चलूं।वह लालटेन लेकर मधुशाला गया। उसने जी भरकर शराब पी और आधी रात बीते वह अपने घर की तरफ वापस लौटा।चलते समय उसने लालटेन उठा ली और चलता बना।लेकिन रात के अँधेरे में रास्ते पर जगह जगह खड़े ,बैठे जानवरों से,मकानों से,रास्ते पर गुजरते लोगों से उसकी टकर होने लगी।वह बार -बार अपनी लालटेन उठा कर देखने लगा और अपने मन में विचारने लगा, स्वयं से पूछ्ने लगा कि आज लालटेन को क्या हो गया है कि प्रकाश नहीं मालूम होता? रास्ता बड़ा अँधेरा ज्ञात हो रहा है,लालटेन कुछ प्रकाश नहीं देती ??
फिर वह एक दीवाल से टकराया और नाली में गिर पड़ा।हाथ में पकड़े हुए लालटेन को उसने गुस्से से पटक दी और कहा कि ठीक ही कहते थे पुराने लोग कि कलयुग आयेगा जब प्रकाश भी प्रकाश नहीं देगा। यह लालटेन भी कल युगी मालूम पड़ती है।
सुबह में बेहोशी की हालत में उसे नाली से उठाकर घर पहुँचाया गया।दोपहर को मधुशाला के मालिक ने एक नौकर को भेजा।नौकर आया और उसने शराब पिये व्यक्ति को एक चिठ्ठी दी। उस चिठ्ठी में मधुशाला के मालिक ने लिखा था ,” मेरे मित्र, रात तुम भूल से अपनी लालटेन की जगह मेरे तोते का पिजड़ा उठा कर ले गए। मैं लालटेन वापस भेज रहा हूँ, कृपा करके मेरा तोता का पिजड़ा तुम वापस लौटा देना।”
तब वह पीछे जाकर देखा,वह रात तोते का पिजड़ा ले आया था। अब तोते के पिजड़ों से प्रकाश नहीं निकलता। लेकिन बेहोश आदमी को यही पता नहीं चलता है कि क्या लालटेन है,क्या तोते का पिजड़ा है।
सचाई यही है कि आजतक व्यक्ति धर्म के नाम पर तोतों के पिजड़े पकड़े रहा है,इसलिए धार्मिक दुनिया पैदा नहीं हो सकी और आदमी का परिवर्तन नहीं हो सका। धर्म के नाम पर तोते के पिजड़े पकड़े हुए है, प्रकाशित दिए नहीं।
आज सम्पूर्ण विश्व का अंधकारमय परिदृश्य ‘धर्म और धार्मिक’ शब्दों के यथार्य प्रायोगभौमिक स्वरूप को जानने, समझने के लिए विवश कर रहा है।कब तक हम अपने को ठगते रहेंगे, कब तक हम अपने को अन्धविश्वाश,भावजड़ता,कुसंस्कार, मजहब,सम्प्रदाय इत्यादि सामाजिक बुराईयों के घने जंगल में भटकाते रहेंगे।निसन्देह आज भी हम भटकाव के पथ पर ही अग्रसर हैं।
आज का मानव समाज अर्थनैतिक दिवालियापन ,सामाजिक अस्थिरता, सांस्कृतिक अवक्षयऔर धार्मिक कुसंस्कार के चरम स्थिति में पहुँच गया है।इस स्थित्ति से समाज को उबारना होगा।
अगर किसी के घर का दिया बुझ जाय और घर में अँधेरा हो जाय और घर के लोग बाहर जाकर कहने लगें कि हम क्या करें ,अँधेरे ने हमारे दीये को बुझा दिया तो हम इसे नहीं मानेंगे क्योकि अँधेरे ने आज तक किसी के दीये को नहीं बुझाया।अँधेरा इतना कमजोर है कि वह दीये को कैसे बुझायेगा ?
( कृपा शंकर पाण्डेय )
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