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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 29 Sep 2025 7:11 PM |   104 views

नव नालंदा महाविहार में ‘साहित्य में प्रकृति की आवाज़’ विषय पर व्याख्यान

नालंदा स्थित नव नालंदा महाविहार ( सम विश्वविद्यालय, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार) में स्वच्छता पखवाड़ा के अंतर्गत एक विशेष व्याख्यान का आयोजन किया गया। यह व्याख्यान सुप्रसिद्ध आलोचक, कवि और प्रोफेसर रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव ‘परिचय दास’ द्वारा ‘साहित्य में प्रकृति की आवाज़’ विषय पर प्रस्तुत किया गया।
 
कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. विश्वजीत कुमार, संकायाध्यक्ष, पालि एवं अन्य भाषाएँ ने की। संचालन डॉ. भीष्म कुमार ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन अन्नी सिंह ने प्रस्तुत किया।
 
अपने विचारपूर्ण व्याख्यान में प्रो. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव ‘परिचय दास’ ने कहा कि साहित्य मात्र मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि वह प्रकृति की आवाज़ को भी अपने भीतर समाहित करता है। भारतीय साहित्य की परंपरा में प्रकृति न केवल पृष्ठभूमि रही है, बल्कि वह जीवित, सक्रिय और संवाद करती हुई सत्ता के रूप में उपस्थित होती रही है। वेदों और उपनिषदों में प्रकृति के स्वर गूँजते हैं—सूर्य, वायु, जल, आकाश और पृथ्वी के प्रति आदर और साक्षात्कार का भाव झलकता है। इसी धारा को आगे बढ़ाते हुए कालिदास ने ‘ऋतु-संहार’ और ‘मेघदूत’ में प्रकृति को मानवीय भावनाओं के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया।
 
परिचय दास ने अपने वक्तव्य में बताया कि शास्त्रीय साहित्य से लेकर लोक साहित्य तक, हर स्तर पर प्रकृति ने मनुष्य के जीवन और उसकी रचनात्मकता को दिशा दी है। लोकगीतों में पेड़-पौधों, नदी-नालों, ऋतुओं और पक्षियों की उपस्थिति केवल सजावटी नहीं, बल्कि मानवीय जीवन की गहरी सच्चाईयों की प्रतिध्वनि है। भोजपुरी, मैथिली और अवधी के संस्कार गीतों में गंगा, कोसी, सोन जैसी नदियों का स्मरण केवल भूगोल नहीं, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। तुलसीदास के रामचरितमानस में प्रकृति का चित्रण जहाँ आध्यात्मिक भावभूमि का विस्तार करता है, वहीं सूरदास की कविता में वह प्रेम और विरह का संवाहक बन जाती है।
 
परिचय दास ने विस्तार से बताया कि आधुनिक हिंदी कविता में प्रकृति एक नई व्याख्या के साथ सामने आती है। नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर और केदारनाथ सिंह जैसे कवियों ने प्रकृति की आवाज़ को समकालीन जीवन की जटिलताओं और संघर्षों से जोड़ा। आज का कवि केवल ऋतु-वर्णन या सौंदर्य-चित्रण तक सीमित नहीं है बल्कि वह पर्यावरणीय संकट, प्रदूषण और मानवीय उपेक्षा के संदर्भ में प्रकृति को स्वर देता है। उन्होंने कहा – “आज साहित्यकार का कर्तव्य है कि वह प्रकृति की ओर से बोले क्योंकि प्रकृति स्वयं अब असहाय और मौन कर दी गई है।”
 
परिचय दास ने यह भी रेखांकित किया कि भारतीय संस्कृति में प्रकृति का स्वर हमेशा जीवन का मार्गदर्शक रहा है। ऋषियों ने आरण्यक लिखे, जैन और बौद्ध परंपरा ने वृक्षों और वनों में साधना की, और संत कवियों ने नदी-नालों और धूल-मिट्टी को अपनी वाणी का आधार बनाया। आज जब संसार ‘स्वच्छता’ और ‘सतत विकास’ जैसे अभियानों की ओर देख रहा है, तो साहित्य में प्रकृति की आवाज़ को सुनना और भी ज़रूरी हो जाता है।
 
उन्होंने कहा कि स्वच्छता का विचार केवल भौतिक सफाई तक सीमित नहीं है। यह आंतरिक और बाह्य, दोनों स्तरों पर जीवन और संस्कृति की शुद्धता का प्रश्न है। साहित्य जब प्रकृति की आवाज़ को व्यक्त करता है, तो वह हमें हमारी ज़िम्मेदारी की याद दिलाता है कि हम नदियों, वनों और वातावरण की रक्षा करें। इस दृष्टि से स्वच्छता पखवाड़ा केवल सरकारी कार्यक्रम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अनुष्ठान है।
 
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो. विश्वजीत कुमार ने कहा कि साहित्य और भाषा की शक्ति तभी सार्थक है जब वह समाज और प्रकृति के बीच सेतु का कार्य करे। उन्होंने प्रो. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव ‘परिचय दास’ के वक्तव्य को अत्यंत प्रेरणादायक बताया और कहा कि इस प्रकार की व्याख्यान मालाएँ नव नालंदा महाविहार की अकादमिक परंपरा को समृद्ध करती हैं।
 
कार्यक्रम का संचालन करते हुए डॉ. भीष्म कुमार ने विषय की महत्ता को रेखांकित किया और वक्ता का स्वागत किया। अंत में अन्नी सिंह ने सभी अतिथियों, शिक्षकों, शोधार्थियों और छात्रों का धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कहा कि इस प्रकार के आयोजन से छात्रों को साहित्य और जीवन के गहरे संबंधों को समझने का अवसर मिलता है।
 
इस व्याख्यान में बड़ी संख्या में शिक्षक, शोधार्थी और छात्र उपस्थित थे। सभी ने अनुभव किया कि प्रकृति की आवाज़ को साहित्य के माध्यम से सुनना आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यह व्याख्यान केवल एक शैक्षणिक आयोजन नहीं रहा, बल्कि यह सांस्कृतिक चेतना का जागरण भी था।
 
 
 
 
 
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