किसान और मौसम : संघर्ष और उम्मीद का चेहरा

यही कारण है कि बेमौसम बारिश, पाला, लू, आगजनी या ओलावृष्टि का सबसे बड़ा शिकार किसान ही बनता है।वैतनिक कर्मचारियों को वेतन समय पर मिल जाता है, व्यापारियों के सौदे चलते रहते हैं, पर किसान का महीनों का श्रम और पूँजी एक झटके में मिट्टी हो जाती है। यही वह जगह है जहाँ उसकी असली परीक्षा शुरू होती है।
खेती किस कठिनाई से होती है, यह किसान ही जानता है। लेकिन उसकी तकलीफ़ फसल कटने के बाद भी खत्म नहीं होती। आम व्यापार की तर्ज़ पर जहाँ अच्छा उत्पादन अधिक मुनाफ़ा देता है, वहीं किसानों की दुनिया में यह अक्सर उल्टा होता है। मंडी पहुँचते ही उसकी मेहनत पर बिचौलियों और दलालों का कब्ज़ा हो जाता है। समर्थन मूल्य का ऐलान होता है, लेकिन असलियत में किसान को औने-पौने दाम पर ही अनाज बेचना पड़ता है।
कृष्ण मुरारी सिंह जी की पंक्ति यहाँ सटीक बैठती है—
“खेती के हाथ में हल है, लेकिन भाव का कंठ कसाई के हाथ में है।”
घाघ की कहावत भी यही सच बताती है—
“धान उपजै घर किसान के, भाव पावै मोल व्यापारी।”
(अर्थ: मेहनत किसान की होती है, पर असली लाभ व्यापारी ले जाता है।)
e-NAM मंडी की हकीकत-
किसानों की परेशानियाँ कम करने और पारदर्शिता लाने के लिए e-NAM (राष्ट्रीय कृषि बाजार) शुरू किया गया था। उद्देश्य यह था कि किसान को घर बैठे सही दाम मिले और बिचौलियों की पकड़ टूटे। लेकिन ज़मीनी हकीकत अलग है—
* तकनीकी पहुँच और साक्षरता की कमी।
* दलालों का ही किसानों के नाम से लॉगिन कर लेना।
* भुगतान में देरी।
* मंडी ढाँचे और नेटवर्क की कमी।
“जाके सिर पर ऋण घना, ताको निंद न दिन न रैना।”
(अर्थ: कर्जदार किसान को चैन नहीं, न दिन को और न रात को।)
आयात नीति और बाजार का खेल-
कई बार फसल तैयार होते ही सरकार अचानक आयात की अनुमति दे देती है। विदेशी सस्ता अनाज आते ही बाजार के भाव गिर जाते हैं और किसान की जेब खाली रह जाती है।
घाघ की कहावत ऐसे समय सच लगती है—
“धान किसान के घर खाय, भाव व्यापारी के हाथ जाए।”
(अर्थ: अनाज किसान पैदा करता है, पर मुनाफ़ा दूसरों को मिलता है।)
खेती अब सस्ती नहीं रही। डीज़ल, खाद, मजदूरी, बिजली, जहर —हर चीज़ किसान की जेब पर भारी है। साथ ही परिवार की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजमर्रा की ज़रूरतें। जब फसल खराब होती है तो यह सब कर्ज का रूप ले लेता है।
अंगीका कहावत यही बताती है—
“खेती करै धरती खाय, उधार बंधा माथा जाय।”
(अर्थ: खेत उपजाए भी तो खर्चा और कर्ज ही बढ़ता है।)
घाघ भी कहते हैं—
“किसान करै दिन-रैन मेहनत, उपज गवै बिन मोल।”
(अर्थ: किसान चौबीसों घंटे मेहनत करता है, लेकिन उपज का सही मूल्य नहीं मिलता।)
किसान क्यों नहीं टूटता-
इन सबके बावजूद किसान हार नहीं मानता। घाघ और भड्डरी ने कहा है—
“किसान के धैर्य से बड़ी कोई पूँजी नहीं।”
(अर्थ: किसान का सब्र ही उसकी असली पूँजी है।)
और एक और कहावत—
“धरती धीरज धरि रहै, किसान तजै न आस।”
(अर्थ: धरती जैसे धैर्य रखती है, वैसे ही किसान कभी आशा नहीं छोड़ता।)
आगे की राह-
अब वक्त है कि किसान की सहनशीलता को सिर्फ सराहा न जाए, बल्कि उसकी समस्याओं का हल ढूँढा जाए।
* मंडी व्यवस्था को पारदर्शी बनाया जाए और बिचौलियों की पकड़ तोड़ी जाए।
* e-NAM जैसी योजनाओं को किसानों की वास्तविक ज़रूरतों के अनुसार सुधारना होगा।
* आयात नीति फसल बोने से पहले घोषित हो।
* बीमा योजनाएँ सरल और भरोसेमंद हों।
* मौसम पूर्वानुमान छोटे किसानों तक सही समय पर पहुँचे।
* शिक्षा, स्वास्थ्य और पारिवारिक ज़रूरतों के लिए किसान को विशेष सहायता मिले।
निष्कर्ष-
किसान मौसम से भी लड़ता है और व्यवस्था से भी। फिर भी उसका धैर्य अटूट है। वह हमें सिखाता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी उम्मीद से बड़ी ताकत कोई नहीं।
घाघ का कथन आज भी बिल्कुल सही लगता है—
किसान करै मेहनत भारी, जग खाए और वो दुखियारी।
(अर्थ: किसान मेहनत करता है, दुनिया खाती है और वही दुख झेलता है।)
इसलिए देश का कर्तव्य है कि किसान की मेहनत को सम्मान ही नहीं, बल्कि सही मूल्य और सुरक्षा भी मिले।धन्य है मेरे देश का किसान, जो हर विपरीत परिस्थिति में भी अन्नदाता बना रहता है।
डॉ. शुभम कुमार कुलश्रेष्ठ,विभागाध्यक्ष एवं सहायक प्राध्यापक – उद्यान विभाग
(कृषि संकाय),रविन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय, रायसेन, मध्य प्रदेश
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