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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 27 Oct 2025 8:30 AM |   89 views

प्रकृति की उपासना का पर्व -छठ

छठ एक उज्ज्वल उत्सव है—एक ऐसा पर्व जिसमें जल, प्रकाश, वायु, धरती और सूर्य का अद्भुत संगम होता है। यह कोई धार्मिक कर्मकाण्ड भर नहीं बल्कि लोक की आत्मा का सामूहिक उजास है। इसमें न कोई भय है, न कोई स्वार्थ—केवल समर्पण है, आत्मशुद्धि है, और सूर्य के प्रति आदिकालीन आस्था की प्रतिज्ञा है। जब कार्तिक के सूर्य अपनी कोमल किरणों से गंगा, सरयू, सोन या किसी छोटे तालाब के जल को छूते हैं तब यह जल लोक-हृदय का दर्पण बन जाता है। उसमें डूबे हुए व्रतियों के चेहरे किसी अलौकिक प्रकाश में नहाए हुए प्रतीत होते हैं।
 
छठ की तैयारी उस समय आरम्भ होती है जब खेतों में धान कट चुका/ रहा होता है और घर के आँगन में नई फसल की गंध फैली रहती है। मिट्टी की सोंधी महक में जब ‘नहाय-खाय’ का दिन आता है, तो घर की स्त्रियाँ जैसे पूरे वातावरण को पवित्र कर देती हैं। चूल्हे पर पहली बार अरवा चावल और लौकी की सब्ज़ी बनती है—जैसे भोजन नहीं, एक संस्कार पक रहा हो। जल से पवित्र होना, व्रत से संयम में रहना और सूर्योदय-सूर्यास्त के क्षणों में उस तेज के सामने अपने अस्तित्व को समर्पित कर देना—यह किसी एक देवी-देवता की नहीं, बल्कि पूरी प्रकृति की आराधना है।
 
यह पर्व स्त्री के संकल्प का पर्व है। लोक में इसे “छठी मइया” कहा जाता है, लेकिन उसकी छवि में हर माँ, हर बहन, हर बेटी की छवि समाई है। वह उगते और डूबते सूर्य दोनों की पूजा करती है—जैसे जीवन और मृत्यु, आरम्भ और अंत, दोनों के बीच संतुलन साधती हो। जब वह शाम के अर्घ्य के समय जल में खड़ी रहती है, तो उसकी आँखों में नमी नहीं, प्रकाश झिलमिलाता है। वह जैसे अपने भीतर के तमस को धोकर सूर्य के उजाले से नई ऊर्जा भर लेती है।
 
छठ का सांध्य ~दृश्य देखने वाला दृश्य नहीं, अनुभव करने वाला होता है। घाटों पर गूँजते गीतों में एक सामूहिक प्रार्थना बहती है—“केतकी के फुलवा, रंग रंगीला…” से लेकर “कांच ही बांस के बहंगिया…” तक, सबमें लोक की आत्मा बोलती है। यह गीत न तो केवल पूजा के हैं, न मनोरंजन के; ये जीवन और प्रकृति के गहरे संवाद हैं। उनमें श्रम की थकान है, संकल्प की दृढ़ता है, और विश्वास की गंध है। जब पूरी घाटी इन गीतों से भर जाती है, तो लगता है कि यह कोई साधारण पर्व नहीं, लोक की सामूहिक चेतना का पुनर्जन्म है।
 
रात भर जल के किनारे दीपक जलते रहते हैं—वे केवल मिट्टी के दीप नहीं, बल्कि प्रतीक हैं उस लौ के, जो हर हृदय में जलती है। जो जीवन की कठिनाइयों में भी नहीं बुझती। छठ की रात का आकाश किसी तीर्थ से कम नहीं लगता। दूर-दूर तक फैले दीपों की कतारें जैसे यह कहती हैं कि मनुष्य जब आस्था और प्रकृति के बीच सेतु बनाता है, तब उसका अस्तित्व सार्थक हो जाता है।
 
सूर्योदय के समय जब अंतिम अर्घ्य दिया जाता है, तब प्रकृति अपनी सम्पूर्ण सुषमा में प्रकट होती है। लालिमा से भरे आकाश में जब सूर्य उगता है, तो वह केवल आकाश में नहीं उगता—हर व्रती के हृदय में उगता है। उसकी किरणें जल को सोने-सा चमकाती हैं, और उसी क्षण लगता है जैसे जल, भूमि और सूर्य तीनों एक हो गए हों। यह मिलन उस दर्शन का है जिसमें मनुष्य प्रकृति का अंग बन जाता है, उसका स्वामी नहीं।
 
छठ में कोई पुजारी नहीं, कोई मध्यस्थ नहीं। यहाँ हर व्यक्ति स्वयं उपासक है। उसकी आस्था व्यक्तिगत होते हुए भी सामूहिक है। वह अपने परिवार, अपने गाँव, अपनी फसल, अपने बच्चों, यहाँ तक कि समूचे जीवन के लिए प्रार्थना करता है। यह प्रार्थना वैयक्तिक होते हुए भी सामाजिक है—क्योंकि छठ में केवल “मैं” नहीं, “हम” का भाव सर्वोपरि होता है। शायद इसी कारण यह पर्व सबसे अधिक आत्मीय, सबसे अधिक लोकप्रिय और सबसे अधिक पवित्र माना जाता है।
 
 गाँवों में जब छठ पर्व आता है, तो वह केवल एक त्यौहार नहीं लाता, वह जीवन की गति में लय लाता है। घर के आँगन में मिट्टी लीपी जाती है, बाँस के सूप सजते हैं, और अर्घ्य के लिए ठेकुआ तले जाते हैं। इन ठेकुआओं की गंध में जितना घी होता है, उतनी ही भक्ति भी। छठ का हर अन्न, हर अर्पण, हर गीत उस भूमि की स्मृति है जहाँ श्रम और श्रद्धा दोनों एक साथ फलते हैं।
 
शहरों में भी आज छठ का विस्तार हुआ है, लेकिन उसकी आत्मा वही लोक की है। मॉल और अपार्टमेंट के बीच भी जब कोई महिला बालकनी से सूर्य को अर्घ्य देती है, तो वह अपने गाँव के तालाब की स्मृति में लौटती है। यह स्मृति ही छठ की आत्मा है—अपने मूल से जुड़ने की, अपनी माटी को याद करने की, और जीवन को पुनः अर्थ देने की स्मृति।
 
छठ का सौंदर्य इस बात में है कि यह हमें धर्म से अधिक जीवन की अनुशासनशीलता सिखाता है। उपवास में जो संयम है, वह आत्मसंयम का प्रतीक है; जल में जो डुबकी है, वह आत्मशुद्धि का प्रतीक है; और सूर्य के सामने जो प्रार्थना है, वह आत्मज्ञान का प्रतीक है। यह केवल पूजा नहीं, एक आत्मसंस्कार है।
 
जब छठ के अंतिम क्षणों में व्रती जल से बाहर निकलती है, और पीछे मुड़कर सूर्य को प्रणाम करती है, तो वह जैसे कहती है—“अब मुझमें भी तुम्हारा अंश है।” यही छठ का सार है—प्रकृति के साथ एकाकार होने की वह शांति, जो शब्दों से नहीं, केवल अनुभव से व्यक्त होती है।
 
बिहार, पूर्वांचल, नेपाल तराई, दिल्ली या मुंबई—जहाँ भी छठ मनाया जाता है, वहाँ एक ही बात बार-बार प्रतिध्वनित होती है: आस्था भूगोल से नहीं बंधती। वह जहाँ पहुँचती है, वहाँ उस भूमि को पवित्र बना देती है। छठ का गीत किसी भाषा, किसी धर्म, किसी जाति का नहीं—वह मनुष्य की आत्मा का गीत है। वह हमें यह याद दिलाता है कि सूर्य सबके लिए समान है, और उसके प्रकाश में सभी का जीवन समान रूप से आलोकित होता है।
 
छठ का यह उजास एक दिन का नहीं होता। यह उस लोकसंस्कृति का अनवरत प्रकाश है, जिसमें श्रम, आस्था और सौन्दर्य एक-दूसरे में घुलकर जीवन को पवित्र बनाते हैं। सूर्य के सामने खड़ा मनुष्य जब अपने भीतर झाँकता है, तो पाता है कि वह भी एक दीपक है—मिट्टी का, नश्वर, लेकिन भीतर की लौ से अनन्त। यही छठ की सबसे बड़ी कविता है—मनुष्य का अपने भीतर के सूर्य से मिलन।
 
 
—प्रो . रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ” परिचय दास 
 
 
 
 
 
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