साहित्य आत्मा की आवाज़ है- परिचय दास
नव नालंदा महाविहार , नालन्दा में हिन्दी पखवाड़ा के अंतर्गत ‘साहित्य कैसे लिखें?’ विषय पर एक विशेष कार्यशाला का आयोजन हुआ। कार्यक्रम का संयोजन हिन्दी विभाग के आचार्य प्रो. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव ‘परिचय दास’ ने किया।
प्रो. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव ‘परिचय दास’ , प्रोफेसर , हिन्दी एवं संयोजक, राजभाषा व ‘ साहित्य कैसे लिखें’ विशेष कार्यशाला में कहा कि साहित्य आत्मा की आवाज़ है, इसमें केवल शब्द नहीं बल्कि जीवन का अनुभव बोलता है। लेखन में सबसे बड़ी शक्ति संवेदना होती है, वही शब्दों को जीवित बनाती है। एक सच्चा लेखक समाज और समय की आवाज़ को पकड़कर रचना करता है। साहित्य लिखना केवल कलम चलाने का कौशल नहीं बल्कि आत्मा की गहरी पुकार को शब्दों में ढालने की प्रक्रिया है। रचना में जीवन का सच्चा अनुभव ही सबसे बड़ी ऊर्जा बनकर प्रवाहित होता है और लेखक की पहचान शब्दों की बाज़ीगरी से नहीं बल्कि संवेदनाओं की प्रामाणिकता से होती है। साहित्य वही कहलाता है जो मनुष्य की पीड़ा और आनंद को भीतर तक छू सके तथा उसे सोचने पर मजबूर कर दे।उन्होंने कहा कि लेखन में परम्परा और लोक से जुड़ाव लेखक को गहराई और विस्तार प्रदान करता है और कोई भी साहित्य अपने समय और समाज से अलग होकर जीवित नहीं रह सकता। लेखक का सबसे बड़ा दायित्व यही है कि वह अपने समय की बेचैनी और आवाज़ को स्वर दे और मौन भावनाओं को बोलने की क्षमता साहित्य के माध्यम से विकसित करे। परिचय दास ने कहा कि अच्छी रचना वही होती है जो पाठक को भीतर से हिला दे और उसकी दृष्टि को बदल दे।
उन्होंने विद्यार्थियों व युवा प्राध्यापकों को संबोधित करते हुए कहा कि उन्हें भाषा की तरलता, सरलता और विचार की गहराई साधनी चाहिए तभी वे सृजन के नए आयाम खोल सकेंगे। उन्होंने इस कार्यशाला को अद्वितीय बताया । यहां हर विद्यार्थी में एक साहित्यकार व लेखक छुपा है। उसे खोजते हुए खुशी हो रही है। उन्होंने कहा कि ऐसी कार्यशालाएँ आगे निरंतर होंगी। इनमें गद्य की विविध विधाओं को भी सम्मिलित किया जाएगा।
प्रो. हरे कृष्ण तिवारी , हिन्दी विभागाध्यक्ष ने कहा कि साहित्य-लेखन अनुशासन और धैर्य की साधना है। भाषा की गरिमा तभी टिकती है जब उसमें विचारों की गहराई हो। विद्यार्थियों को रचना के साथ आलोचनात्मक दृष्टि भी विकसित करनी चाहिए।
प्रो . श्रीकांत सिंह , अंग्रेज़ी विभागाध्यक्ष ने कहा कि लेखन का मूल तत्त्व कल्पना और संवेदना का संतुलन है। किसी भी भाषा का साहित्य तभी प्रभावी होता है जब वह मानवता की साझा पीड़ा और प्रसन्नता को व्यक्त करे। युवा लेखक अपनी भाषा के साथ विश्व साहित्य से भी संवाद करें।
प्रो. विजय कर्ण , आचार्य, संस्कृत विभाग ने कहा कि संस्कृत साहित्य में रचना को तपस्या कहा गया है। लेखक को शब्दों की शुचिता और भावों की पवित्रता बनाए रखनी चाहिए। लेखन वही सार्थक है, जो मानव जीवन के आदर्श और सत्य की ओर ले जाए।
विकास सिंह , प्राध्यापक, हिन्दी ने कहा कि साहित्य किसी भी समाज की आत्मकथा होता है। लेखक का कर्तव्य है कि वह अपने समय के सच को शब्दों में उतारे। रचना तभी पूर्ण होती है जब वह पाठक के हृदय को छू ले।
शिवानी जायसवाल, संचालक ने कहा कि साहित्य पर केंद्रित यह कार्यशाला विद्यार्थियों को सृजन की प्रेरणा देती है। ऐसी कार्यशालाएँ लेखन की दिशा और दृष्टि दोनों को विकसित करती हैं।
निकिता आनन्द ने धन्यवाद- ज्ञापन करते हुए इस आयोजन व हिन्दी पखवाड़ा को सार्थक और जीवंत बताया। सभी वक्ताओं और प्रतिभागियों के योगदान से यह कार्यशाला यादगार बनी।
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