‘ककहरा’
हाल ही में ‘ककहरा’ पुस्तक प्रकाशित हुई है। पुस्तक के लेखक हैं, डॉ. देवेन्द्र नाथ तिवारी।इसमें भोजपुरी लोक की खुशबू और साहित्यिक समृद्धि का अनोखा मेल है। पुस्तक भोजपुरी कविता और गीतों को वैचारिक ढाँचे में पिरोकर प्रस्तुत करती है। ‘ककहरा’ नाम अपने आप में विशेष है। यह भोजपुरी साहित्य के पहिले-पहिल पाठ की तरह है। जैसे बच्चा अक्षर-ज्ञान के क्रम में ‘ककहरा’ सिखता है, वैसे ही यह पुस्तक पाठकों को भोजपुरी की समृद्ध परंपरा से अवगत कराती है। उन्हें जोड़ती है। लोक-संस्कृति की गहराई में ले जाती है। गुमनाम रचनाकारों को सामने लाती है। उन्हें सम्मान देती है।
डॉ. देवेन्द्र नाथ का भोजपुरी साहित्य और संस्कृति पर उनके अध्ययन का दायरा व्यापक है। ‘भोजपुरी पत्रकारिता के इतिहास’ और ‘भोजपुरी की संवैधानिक मान्यता’ उनकी चर्चित कृतियाँ हैं। इस कड़ी में ‘ककहरा’ उनकी नई आमद है। डॉ. तिवारी भोजपुरी को महज बोली नहीं मानते। उनके लिए यह सामाजिक संघर्ष और संवेदनाओं की भाषा है। उनकी लेखनी में वैचारिक चेतना, सैद्धांतिक तार्किकता और लोक सहजता का मेल है। ‘ककहरा’ भोजपुरी समालोचना के क्षेत्र में एक नए डेग की तरह है। यह एक श्रृंखला की पहली कड़ी है।
भोजपुरी की रचनात्मकता तो समृद्ध है, मगर समालोचना का क्षेत्र अपेक्षाकृत कमज़ोर रहा। इसे अक्सर ‘उपभाषा’ या ‘बोली’ कहकर हल्के में लिया गया। ‘ककहरा’ इस सोच को चुनौती देती है। 304 पन्नों की यह पुस्तक 42 रचनाओं का पाठ-केंद्रित विश्लेषण करती है। यह भाषा, भाव, प्रवाह, सामाजिक संदर्भ और सौंदर्यबोध को परखती है। जैसे कि, विरह गीतों को सामाजिक बंधनों के प्रतिरोध के रूप में देखा जाना।