मैं कोई कवि नहीं हूँ
जो शब्दों की परख कर सके
या बता सके कि कौन-सा बिंब
उचित होगा तुम्हारे दुःख के लिए।
चिड़ियों से कोई नहीं पूछता
कि वे कौन-से राग में गाएँ
नदी से कोई नहीं कहता
कि वह कौन-सी भाषा में बहे।
धूप जब उतरती है पीपल की छाया में
वह किसी अलंकार की परवाह नहीं करती।
कविता-
कभी-कभी एक छींक की तरह आती है
बिना अनुमति
बिना तर्क
और कभी-कभी
कई जन्मों की चुप्पी के बाद
एक टूटी साँस में जन्म लेती है।
मैंने कवियों को देखा है-
बाज़ार में सब्ज़ियाँ चुनते हुए
मंदिर की सीढ़ियों पर
कुछ खोए हुए से बैठते हुए
किसी भूले हुए प्रेम को
अनपढ़ आँखों में याद करते हुए।
वे नींबू के छिलके में
धूप का रंग पहचानते हैं
और बारिश के पहले बादल को
अपने सीने से लगाते हैं-
बिना यह जाने कि
वह उपमा है या रूपक।
उनके पास कोई क़लम नहीं थी
न कोई मंच
न श्रोतागण-
फिर भी वे
कवि थे।
कभी रोटियों की महक में कविता होती है
कभी पसीने में
कभी किसी माँ के
टूटे हुए चूड़ीदान में।
कभी वह उस वाक्य में भी होती है
जो अधूरा रह गया
किसी अंतिम मुलाक़ात में।
इसलिए मत ढूँढो
कविता को किसी किताब में
या किसी दीवार पर लिखे नारे में।
वह हो सकती है
किसी बच्चे की पहली मुस्कान में
या उस बूढ़े रिक्शेवाले की चुप्पी में
जिसने बहुत दिन से
किसी से कुछ नहीं कहा।
कविता पन्नों में नहीं
धड़कनों में पलती है-
जो लोग टूटकर जीते हैं
वे कविता नहीं लिखते-
वे स्वयं कविता हो जाते हैं।
मैं कोई कवि नहीं हूँ
मैं बस वही हूँ
जो कभी-कभी
ख़ामोशी को
लिखने की कोशिश करता है
और जब असफल होता हूँ
तो बस चुप रह जाता हूँ-
कि शायद वहीं
सबसे ज़्यादा कविता होती है।
– परिचय दास
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