एक नारी के रूप अनेक
नारी हूं अबला नहीं
मैं हूं प्यार की खान,
जो सच्चा मुझसे प्रेम करे
मै हूं उसपे कुर्बान ।
मैं ही जग की जननी हूं
हूं पुरुषों का अभिमान
पर, जो ना समझे मुझे
तो बचे ना उसका मान ।
मैं हूं बड़ी करुणामयी
हूं ईश्वर का वरदान
पर जो भी उलझाए मुझे
तो मिटा दूं उसकी शान ।
मैं तो हूं बड़ी शान्ति प्रिय
ना रखती किसी से होड़
पर, जो मुझको छेड़ दे
तो बचे ना उसकी छोर ।
मैं तो पीपल वृक्ष हूं
देती हूं सबको छांव
पर,जो ना समझे मुझे
चुभे कांटे उसके पांव ।
अंत में इतना ही कहूंगी कि—-
नारी प्रेम में राधा बनी
गृहस्थी में बनी सीता
पर, काली का भी रूप धरा
जब सम्मान इसका खींचा ।
नारी के लिए जो कांटा बोए
तो ये बोए भाला
ताकि दुष्टों को पता चले
पड़ा किसी से पाला ।
डॉ० संजुला सिंह “संजू”
जमशेदपुर
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