कैसे बने धनपत राय श्रीवास्तव “मुंशी प्रेमचंद”
धनपत राय श्रीवास्तव, जिन्हें दुनिया मुंशी प्रेमचंद के नाम से जानती है, हिंदी और उर्दू साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय लेखकों में से एक थे। उनके जीवन की कहानी एक साधारण परिवार से निकलकर महान साहित्यकार बनने की प्रेरणादायक गाथा है। मुंशी प्रेमचंद का साहित्य भारत की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वास्तविकताओं का आईना है। उनके उपन्यास और कहानियाँ न केवल उनके समय के भारतीय समाज की समस्याओं और मुद्दों को चित्रित करते हैं, बल्कि आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।
प्रारंभिक जीवन-
धनपत राय श्रीवास्तव का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के लमही गांव में हुआ था। उनके पिता, अजायबराय, डाकखाने में मामूली पद पर कार्यरत थे और उनकी मां आनंदी देवी घरेलू महिला थीं। उनका बचपन गरीबी में बीता। जब वह मात्र 7 साल के थे, तब उनकी मां का निधन हो गया, और जब वह 14 साल के हुए, तो उनके पिता भी चल बसे। इन दुःखद घटनाओं ने उनके जीवन को गहरे तरीके से प्रभावित किया। पिता की मृत्यु के बाद, प्रेमचंद को घर की जिम्मेदारी उठानी पड़ी, और उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ परिवार के भरण-पोषण का काम शुरू किया।
शिक्षा और प्रारंभिक कैरियर-
मुंशी प्रेमचंद ने प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव में प्राप्त की। बाद में उन्होंने बनारस के एक मिशनरी स्कूल से मिडिल की परीक्षा पास की और इसी दौरान उन्होंने उर्दू और फारसी भाषाओं का अध्ययन किया। उनकी साहित्यिक यात्रा का प्रारंभ भी उर्दू भाषा में ही हुआ था। पहले-पहल उन्होंने “नवाब राय” के नाम से लिखना शुरू किया। उनकी पहली उर्दू रचना “असरार-ए-मआबिद” थी, जो 1903 में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी धार्मिक अंधविश्वास और पाखंड पर आधारित थी।
1906 में, धनपत राय का विवाह हो गया, लेकिन वह वैवाहिक जीवन में सुखी नहीं थे। उनका पहला विवाह परिवार की मर्जी से हुआ था, और जल्द ही वे उस रिश्ते से अलग हो गए। 1906 में ही उनका दूसरा विवाह एक विधवा महिला, शिवरानी देवी, से हुआ, जो उनके जीवन की साथी बनीं और उनका समर्थन किया।
साहित्यिक जीवन का प्रारंभ-
प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन तब शुरू हुआ जब उन्होंने हिंदी में लिखना शुरू किया। उन्होंने देखा कि हिंदी पाठकों की संख्या लगातार बढ़ रही है, और वह हिंदी साहित्य में अपना योगदान देना चाहते थे। उन्होंने 1910 में “सोज़-ए-वतन” नामक एक उर्दू कहानी संग्रह प्रकाशित किया, जिसमें देशभक्ति की कहानियाँ थीं। ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया और उनकी काफी आलोचना भी हुई, लेकिन इस घटना ने उन्हें एक लोकप्रिय लेखक बना दिया।
प्रेमचंद ने इसके बाद उर्दू से हिंदी में लिखना शुरू किया और उनका पहला हिंदी उपन्यास “सेवासदन” 1919 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में उन्होंने नारी शोषण, दहेज, और समाज में व्याप्त अनैतिकता पर गहरी दृष्टि डाली। इस पुस्तक ने उन्हें हिंदी साहित्य में एक मजबूत पहचान दिलाई।
सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण
मुंशी प्रेमचंद का साहित्य समाज के निचले वर्गों और उत्पीड़ितों की आवाज़ बना। उनकी कहानियाँ और उपन्यास गरीबी, शोषण, जातिवाद, और सामंती व्यवस्था पर गहरी चोट करते हैं। प्रेमचंद ने भारतीय समाज में व्याप्त असमानताओं और कुरीतियों को अपने लेखन के माध्यम से उजागर किया। उनके पात्र साधारण जीवन जीने वाले लोग थे, जिनकी समस्याएं, संघर्ष और सपने वह अपने शब्दों के माध्यम से व्यक्त करते थे।
प्रेमचंद महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन से भी प्रभावित थे और उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। गांधीजी के “असहयोग आंदोलन” के दौरान उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी और साहित्य के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक सुधारों की पैरवी की। उनका साहित्य एक प्रकार से समाज सुधार का साधन बन गया था।
उनकी प्रमुख कृतियों में “गोदान,” “गबन,” “रंगभूमि,” और “कर्मभूमि” जैसे उपन्यास शामिल हैं, जिनमें उन्होंने किसानों, श्रमिकों, और निम्न वर्ग के लोगों के संघर्ष को केंद्र में रखा। विशेष रूप से, “गोदान” को भारतीय ग्रामीण जीवन और किसान की पीड़ा का सबसे सटीक चित्रण माना जाता है। होरी, “गोदान” का प्रमुख पात्र, भारतीय किसान के संघर्षों का प्रतीक है। होरी का संघर्ष, उसका त्याग, और उसकी विवशता पूरे भारतीय समाज के कृषि संकट को दर्शाती है।
प्रेमचंद की कहानियों की विशेषता
प्रेमचंद ने अपने साहित्य में यथार्थवाद को अपनाया। उनकी कहानियों में समाज के वास्तविक रूप को चित्रित किया गया है। वे अपनी कहानियों में आदर्शवाद और यथार्थवाद का संतुलन बनाते हुए नजर आते हैं। प्रेमचंद की कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनके पात्र साधारण लोग होते हैं, जिनकी समस्याएं और संघर्ष वास्तविक जीवन से जुड़ी होती हैं। वे जमींदारों, महाजनों, धर्मगुरुओं, और अंग्रेजी शासन की आलोचना करते थे, जिन्होंने समाज के गरीब वर्गों को दबाया था।
प्रेमचंद की कुछ प्रसिद्ध कहानियों में “कफन,” “पूस की रात,” “ईदगाह,” “ठाकुर का कुआँ,” “बड़े घर की बेटी,” और “नमक का दरोगा” शामिल हैं। ये कहानियाँ मानवीय संबंधों, आर्थिक विषमता, और सामाजिक असमानता को उजागर करती हैं। उदाहरण के लिए, “ईदगाह” एक छोटे बच्चे हामिद की कहानी है, जो गरीबी में रहते हुए भी अपनी दादी के लिए ईद पर एक चिमटा खरीदने का त्याग करता है। यह कहानी बच्चों की मासूमियत और त्याग की अद्भुत मिसाल है।
साहित्यिक योगदान और प्रभाव
मुंशी प्रेमचंद का साहित्यिक योगदान केवल हिंदी या उर्दू तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने भारतीय साहित्य को एक नई दिशा दी। उन्होंने भारतीय साहित्य में सामाजिक यथार्थवाद को बढ़ावा दिया और अपनी कहानियों में आदर्शवाद के बजाय समाज की वास्तविक तस्वीर पेश की। उन्होंने लेखकों की एक पूरी पीढ़ी को प्रेरित किया और आज भी वे साहित्य के छात्रों और विद्वानों के लिए एक महत्वपूर्ण अध्ययन का विषय बने हुए हैं।
उनके साहित्यिक योगदान के कारण उन्हें “उपन्यास सम्राट” की उपाधि से सम्मानित किया गया। प्रेमचंद के साहित्य का प्रभाव न केवल हिंदी और उर्दू साहित्य पर पड़ा, बल्कि भारतीय सिनेमा और रंगमंच पर भी उनकी कहानियों ने गहरा प्रभाव डाला। कई भारतीय फिल्में और नाटकों की पटकथाएं उनकी कहानियों और उपन्यासों पर आधारित हैं।
अंतिम वर्ष और मृत्यु
मुंशी प्रेमचंद का जीवन संघर्ष और साहित्य सृजन का उदाहरण है। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे आर्थिक तंगी से जूझते रहे, लेकिन उन्होंने कभी अपने साहित्यिक उद्देश्य से समझौता नहीं किया। उनके अंतिम उपन्यास “मंगलसूत्र” को वे पूरा नहीं कर पाए, क्योंकि 8 अक्टूबर 1936 को लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया।
मुंशी प्रेमचंद का जीवन और साहित्य एक सच्चे समाज सुधारक और यथार्थवादी लेखक की प्रेरणादायक कहानी है। उन्होंने भारतीय समाज के निम्न और गरीब तबकों की समस्याओं को अपने लेखन के माध्यम से सशक्त रूप से व्यक्त किया और उन्हें एक आवाज़ दी। उनका साहित्य भारतीय समाज की जटिलताओं और मानवता के संघर्षों को प्रतिबिंबित करता है, और उनकी कृतियाँ आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हैं, जितनी उनके समय में थीं।
वैदिका गुप्ता, वरिष्ठ पत्रकार ,लखनऊ

