सिक्कों की यात्रा पर आधारित आनलाइन छायाचित्र प्रदर्शनी का आयोजन किया गया


कालान्तर में वस्तुओं का आदान प्रदान की आवश्यकता विनिमय EXCHANGE के रूप में एक व्यवस्थित रूप ले लिया। सिक्कों के विकास के प्रथम चरण की शुरूआत भी यहीं से मानी जाती है। विभिन्न काल में प्रचलन में प्रयोग किये गये विशेषकर प्राचीन सिक्कों को प्रदर्शनी में देखा जा सकता है।
संग्रहालय के उप निदेशक डाॅ0 मनोज कुमार गौतम ने कहा कि प्राचीन सिक्के राष्ट्र की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर हैं। इनकी सम्यक सुरक्षा एवं भावी पीढ़ी के उपयोगार्थ इन्हेें संरक्षित रखना तथा जनसामान्य विशेष कर विद्यार्थियों में अपने धरोहर के प्रति अभिरूचि उत्पन्न करना हमारा पुनीत कर्तव्य है।
206 ईसा पूर्व से लेकर 300 ई0 तक के भारतीय इतिहास का ज्ञान हमें मुख्य रूप से सिक्कों की सहायता से प्राप्त होता है। सिक्के एक ओर जहाॅं राजाओं के वंशवृक्ष, उनके महान कार्य, शासन काल तथा उनके राजनीतिक एवं धार्मिक विचार पर प्रकाश डालते हैं, वहीं दूसरी ओर राजा की व्यक्तिगत अभिरूचि, सम्पन्नता एवं राज्य की सीमाओं को भी निर्धारित करने में सहायक होते हैं।

पाणिनी के अष्टाध्यायी से ज्ञात होता है कि वैदिकोत्तर काल में भी गायें विनिमय की माध्यम थीं। कालान्तर में जब यह महसूस हुआ कि छोटी वस्तुओं के क्रय में गाय का उपयोग नहीं किया जा सकता था, तब विनिमय के माध्यम के विकल्प के रूप में ‘निष्क‘ का प्रयोग प्रारम्भ हुआ, जो कदाचित हार की तरह का कोई आभूषण था। आगे चलकर गाय और निष्क के बाद विनिमय माध्यम के रूप में सुवर्ण का प्रयोग आरम्भ हुआ, जिसे निश्चित भार या वजन में तौलने के लिए कृष्णल (एक प्रकार का बीज) प्रयोग में लाया गया। परवर्ती साहित्य में कृष्णल को रक्तिका या गुंजा कहा गया है, जो आज रत्ती के नाम से प्रसिद्ध है।

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