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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 27 Apr 6:39 PM |   1185 views

मेंथा की फसल को कीट और रोग से बचाएं

 इस समय  मेंथा की खेती करने वाले किसानों को  बहुत ही सावधान रहने  की जरूरत है। जरा सी  लापरवाही पूरी फसल के साथ उनकी लागत और मेहनत को भी बर्बाद कर सकती है ।
 
आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविधालय कुमारगंज  अयोध्या द्वारा  संचालित कृषि विज्ञान केन्द्र सोहाँव बलिया के अध्यक्ष ,प्रोफेसर रवि प्रकाश मौर्य   की मानें, तो बढ़ते तापमान में मेंथा की खेती को सिंचाई की जरूरत ज्यादा होती है. किसानों को समय पर सिंचाई करनी चाहिए, जहां दिन में तेज धूप हो सुझाव यही है कि किसान शाम के समय खेतों में पानी लगाएं।
 
किसानों को सिंचाई प्रबंधन के साथ ही साथ फसल सुरक्षा प्रबंधन के तहत कीट और रोग से भी फसल को बचाना आवश्यक है। ऐसा इसलिए क्योंकि मेंथा में कई तरह के कीट और रोग फसल को नुकसान पहुंचाते हैं जिससे किसान को कम उत्पादन के साथ नुकसान हो सकता है।
 
दीमक कीट-
दीमक की वजह से भी मेंथा की फसल खराब हो सकती है. दीमक जमीन से लगे भीतर भाग से घुसकर फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. इससे मेंथा के ऊपरी भाग को उचित पोषक तत्वों की पूर्ति नहीं मिल पाती है, जिससे पौधे मुरझा जाते हैं. साथ ही पौधों का विकास भी सही तरह से नहीं हो पाता है.।
 
प्रबंधन-फसल को दीमक से बचाने के लिए खेत की सही समय पर सिंचाई करना बहुत जरूरी है. साथ ही किसान खरपतवार को भी खेत से नष्ट कर दें । व्यूवेरिया बैसियाना 1 किग्रा को  200 लीटर पानी मे घोल कर प्रति एकड़ की दर से  पौधों की जड़ के पास  सायंकाल छिड़काव करना चाहिए।
 
माहू कीट--इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ पौधों के कोमल भागों  का रस चूसते हैं जिससे पौधों की बढ़वार  इनसे रुक जाती है। इनका प्रकोप फरवरी से अप्रैल  तक रहता है।
 
सूंडी कीट- इसका प्रकोप अप्रैल-मई की शुरुआत में होता है, इसके प्रकोप से पत्तियां गिरने लगती हैं और  पत्तियों के हरे ऊतक खाकर सूंडी इन्हें जालीनुमा बना देती हैं. ये पीले-भूरे रंग की रोयेंदार और लगभग 2.5 से 3.0 सेमी लंबी होती हैं. इनसे पौधों का विकास सही तरह से नहीं हो पाता है। 
 
प्रबंधन- .माहूँ एवं सूडी़ कीट  के प्रबंधन  के लिए एजाडिरेक्टीन 0.15 प्रतिशत  1 लीटर को 200 लीटर पानी में  घोल बनाकर प्रति एकड़ में छिड़काव करे।
 
पत्ती धब्बा रोग-यह रोग पत्तियों की ऊपरी सतह पर भूरे रंग के रूप में दिखाई देता है. भूरे धब्बों की वजह से पत्तियों के अंदर भोजन निर्माण क्षमता आसानी से कम हो जाती है जिससे पौधे का विकास रुक जाता है. पुरानी पत्तियां पीली होकर गिरने लगती हैं।
 
प्रबंधन- इस रोग के प्रबंधन के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50 डब्ल्यू. पी. एक किग्रा  200 लीटर  पानी में मिलाकर 15 दिन के अंतराल पर दो-तीन बार छिड़काव करें।
 
ध्यान रखें- पोधौ की अवस्था एवं क्षेत्रफल के अनुसार  दवा पानी की आवश्यकता होती है।छिड़काव के बाद ध्यान रहे फसलों, एवं उसमें उगे खरपतवारों को पशु न खाये। दवाओं के छिड़काव के कम से कम 7-15 दिन बाद ही तेल निकालें। छिड़काव से पहले   एवं  बाद मे  अच्छी तरह से छिड़काव यंत्र को पानी से धुलाई करें। कभी कभी छिड़काव यंत्र से खरपतवार नाशी  का प्रयोग किया गया रहता है तथा बिना सफाई किये यंत्र से कीटनाशी/ फफूँदनाशी छिड़कने पर फसल जल जाती है। छिड़काव के बाद स्वयं स्नान कर ले। ध्यान रहे सबसे पहले जैविक विधि से ही कीट व बीमारी की रोकथाम करें। ज्यादा समस्या  होने पर तथा जैविक कीटनाशक न मिलने पर ही रसायनिक कीटनाशकों  का प्रयोग करें। 
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