संकीर्णताओं से मुक्ति ही वास्तविक प्रगति
डेल्टा, ओमीक्रॉन और उनके खौफनाक संयोजन के साथ कोरोना की तीसरी लहर के डर के बावजूद जल्द ही भारत के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। बहुत सी बातें परस्पर जुड़ी होकर वातावरण पर प्रभाव डालती हैं। आज क्या है? वोट पाने के लिए सरकार गरीबों की बात करती हैं और नोट पाने के लिए क्या करती है?
पहले सत्ताधारी राजनीतिक दल नेताओं को दलाल की तरह इस्तेमाल करके लूट मचाते थे और अब कंपनियों को दलाल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, भ्रष्टाचार का निगमीकरण कर इसे कानूनी जामा पहना दिया गया है। कंपनियां पहले आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ाकर अपने और सत्तासीन राजनीतिक दलों के उनकी जेबें में भरती हैं और फिर किसी अवसर पर किसी बहाने दाम घटाने की घोषणा हो जाती है। लूट तो अभी भी चल ही रही है।
आज भारत का लोकतंत्र राजनेताओं के सालों-साल रोजगार का माध्यम बन चुका है। आज राजनेता सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों के साथ मिलकर सत्ता लोलुपता में देश को गृह युद्ध में झोंकने का हर संभव इंतजाम कर रहे हैं। कोई एक राजनीतिक दल का दामन पकड़ कर किसी एक या कुछ संप्रदायों के खिलाफ जहर उगल रहा है तो कोई दूसरी पार्टी का दामन पकड़ किसी एक जाति या जाति वर्ग के खिलाफ जहर उगल रहा है, कोई अगड़ों के खिलाफ तो कोई पिछड़ों के खिलाफ विषवमन कर रहा है। हर राजनीतिक दल तात्कालिक लाभ के लिए किसी एक सम्प्रदाय या मजहब या जाति को पकड़ कर बैठा है और देश को, इसके भविष्य को बैठाने का उपाय कर रहा है, यही लोकतंत्र की हकीकत है। विचारधारा तो केवल मुखौटे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। अब देश को न राजनेताओं की आवश्यकता है, न राजनीतिक दलों की। आवश्यकता है तो समाज नेताओं की जो समूचे समाज को साथ लेकर आर्थिक सामाजिक उन्नति के मार्ग पर चल चल सके और दुनिया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर देश को आगे बढ़ा सकें।
यह सारी बातें व्यवस्था को कमजोर करती जा रही हैं। संकीर्णताएं मानवता का हनन ही नहीं करती हैं, व्यवस्था को भी हर तरह से कमजोर करती हैं। संकीर्णताओं को सांस्कृतिक या नैसर्गिक विविधता के नाम पर पाला नहीं जा सकता। आज चीन हर क्षेत्र में हावी हो रहा है भारतीय उपमहाद्वीप में तो यह लद्दाख, अरुणाचल और भूटान में घुस चुका है, आधा भारत खतरे में है। चीन के पास भारत से तीन गुनी ज़मीन है लेकिन हम उनकी एक इंच ज़मीन हथियाने का साहस नहीं कर पाते। 6 सितंबर, २०१९ को विक्रम लैंडर और चंद्रयान-2 के तहत प्रज्ञान लूनर रोवर के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद अब तक हम चंद्रमा पर अपने रोवर को लैंड करने में सफल नहीं रहे हैं, जबकि चीन ने मंगल ग्रह पर सफलतापूर्वक अपने रोवर को उतार लिया है ।रास्ता क्या है? यह समझने के लिए कुछ बातों पर दृष्टि डालना आवश्यक है।
1950 से पहले चालाकी के बल पर ब्रिटेन आधी दुनिया पर काबिज था, भारत को तो इसने एक मामूली कंपनी बनाकर के कब्जा कर लिया था और वही ब्रिटेन आज भी अमेरिका और रूस के साथ मिलकर मजबूत बना हुआ है। खुले विचारों और विज्ञान व टेक्नोलॉजी को अपनाकर अमेरिका ने अपनी जड़ता को कम की और तथाकथित मुक्त बाजार के माध्यम से सबसे आगे पहुंचा और दुनिया की 40% सम्पत्ति का मालिक बन बैठा था। लेकिन अब उसे पीछे धकेल कर चीन साम्यवादी जड़ताओं के बावजूद विज्ञान-प्रौद्योगिकी और अनुशासन के बल पर सबसे आगे निकल चुका है, दुनिया की एक तिहाई संपत्ति का मालिक बन चुका है। रूस और मुस्लिम देशों के साथ वह आज सबसे ज्यादा ताकतवर बन चुका है। भारत उससे बौद्धिक और सैनिक स्तर पर मुकाबला करने में कमजोर पड़ रहा है। जड़ताओं को ढीला कर विश्व मंच पर इनका हावी होना स्वाभाविक है जबकि अमेरिका और उसके सहयोगी भीड़ तंत्र को लोकतंत्र पूंजीवाद को मुक्त अर्थव्यवस्था, डॉग्मा को धर्म और निरंकुश चिंतन को मुक्त चिंतन समझने का भ्रम पाले हुए हैं। भारत संकीर्णताओं से मुक्त कर इनसे भी आगे निकल सकता है।
हमारे लिए क्या रास्ता है? हम तेरह सौ वर्षों से अपने हाथ-पैर भावगत व पदार्थगत जड़ताओं के शिकंजे से बांधे हुए हैं। आगे बढें तो कैसे! हमारे लिए पूंजीवादी और साम्यवादी जड़ताओं से मुक्त होना कठिन नहीं है। लेकिन जातीय और सांप्रदायिक जड़ताओं से भी मुक्त होना होगा। कानूनी सुधारों से यह भी सुनिश्चित करना बहुत आसान हो गया है।
यहाँ जापान से सीखना चाहिए। जापान पर भारत का अच्छा प्रभाव रहा है-काफी सकारात्मक तो बहुत कुछ नकारात्मक भी। भारत की भांति जापान में भी पहले चतुर्जातीय व्यस्था थी, गुलामी व अछूत (outcastes) प्रथाएं थीं; Daimo (विप्र) तथा Samurai(योद्धा) जातियों का सामंती प्रभुत्व था।
1862 से 1869 के मेइजी पुनर्स्थापन (Meiji Restoration) दौरान जापान में इन कुरीतियों को एक ही झटके में समाप्त कर दिया गया बिना किसी मसीहा या अवतार का इंतजार किए। कुछ प्रभावशाली सामन्तियों ने विरोध किया तो आधुनिक रूप से गठित सशक्त सेना ने उन्हे कुचल दिया। अमेरिका का भी समर्थन-दबाव इसमें निहित था। पर, जापान ने हमेशा कर्म और काबिलियत पर भरोसा किया है।
एड्मिरल पेरी के नेतृत्व में अमेरिका ने जापानी सम्राट को अधिकार वापस दिलवाए, उक्त आधुनिक सेना का गठन करवाया। इसी सेना के द्वारा दाइमो तथा समुराई जैसे जातिवादी सामंतों को ऐसा दमन करवाया कि जापानी समाज से जातीय व सामंती वर्चस्व, विभाजन व पहिचान हमेशा के लिए समाप्त हो गया। जापान की यह आधुनिक सेना इतनी ताकतवर हो गयी कि इसने 1894 में जापान से पच्चीस गुने बड़े चीन को धूलचटा कोरिया व फार्मोसा (ताइवान) पर कब्जा कर लिया। बहुत बाद में ये द्वीप जापान से स्वतंत्र तो हो गए पर ताइवान और दक्षिणी कोरिया आज जापान से निकटता रख चीन के लिए चुनौती बने हुए हैं। इसी जापानी सेना ने चालीस गुना बड़े आकार के रूस को 1905 में बुरी तरह शिकस्त दी थी।
लेकिन एक मजबूत सरकार में भी इस दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है, डोगमा युक्त विचारधारा की प्रतिबद्धता भी इसमें बहुत बड़ी बाधा है। आज क्या स्थिति है? इतिहास और संस्कृति की आड़ में अपने लालच और अकुशलता को छुपाया जा रहा है, इतिहास से काम नहीं चल रहा है तो मिथकों को इतिहास के रूप में पेश किया जा रहा है। दक्षिण भारत के लोगों का दानव, दैत्य, राक्षस, असुर, अनार्य आदि के रूप में प्रतीकीकरण की संस्कृति क्या भारत के लिए हितकर है?
राजनीतिक आजादी के बाद के 75 वर्षों में हम अपने को जाति और संप्रदाय के पहचान से मुक्त नहीं कर सके बल्कि ऐसे नेताओं को ही चुना जो जाति और संप्रदाय को खत्म करने के लिए गंभीर कभी थे ही नहीं। दूसरी तरफ बगल में चीन और रूस इन आडम्बरों से प्राय: मुक्त हो काफी आगे बढ़ चुके हैं। पर हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, इसके प्रति कभी गंभीर भी नहीं हुए। यही कमजोरी भारत के लिए बहुत भारी पढ़ने जा रही है। आप चाहे विश्व गुरु हो जाएं या विश्व नेता हो जाए मत भूलिए कि महाभारत के लिए महायुद्ध यदि कभी हुआ था तो उसका असली अखाड़ा भारत ही था।
स्वामी विवेकानंद ने कहा, ‘गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं’। पर उन्होंने कब कहा! लगभग 125 साल पहले जब भारत गुलाम था। उस समय स्वाभिमान की अलख जगाने की महती आवश्यकता थी। उस समय धार्मिक उन्माद गौड़ थे, मज़हबी आतंकवाद नहीं के बराबर था। ईसाइयत का वर्चस्व था। विज्ञान और प्राविधिकी का हल्का ही विकास हुआ था। दुनिया इतनी छोटी नहीं हुई थी। संप्रदाय व जाति मुक्त समाज की कोई संकल्पना थी ही नहीं। स्वामी विवेकानंद से पहले स्वामी दयानंद ने 1875 में आह्वान किया, ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ (समूचे विश्व को आर्य बनाओ) तथा ‘वेदों की ओर लौटो’।
पर आज के समय में कोई कहे, ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ तो कोई कहे कि ‘अल्लाह के करम से हम मुसलमान हैं’ और कोई कहे कि हमें ईसाई या कुछ और होने पर गर्व है, यह सभी मानवता को बांटने और टकराव पैदा करने के तरीके हैं। अल्लाह के करम से तो इंसान पैदा हुआ, जाति-संप्रदाय तो कर्मकांडियों और पाखंडियों की देन हैं।
आज बहुतेरे नेता भारत में स्वामी विवेकानंद जैसे महान व्यक्तित्वों की, उनके काल की कही बातों को ब्रह्मवाक्य की तरह पेश करके भोली भाली जनता को फुसलाकर राजनीतिक सत्ता लाभ लिए भारत को बर्बाद करने का उपाय कर रहे हैं। देश विज्ञान और प्रौद्योगिकी में लगातार पिछड़ता चला गया है।
अब ऐसी व्यवस्था कायम करनी पड़ेगी कि लोग याद करने से परहेज करें कि वह मुसलमान हैं कि ईसाई, हिंदू हैं या सिख, बौद्ध हैं या जैन और वह भूल जाएं कि वह सवर्ण हैं कि अवर्ण, अगड़े हैं कि पिछड़े हैं। पूरी दुनिया को इस्लाम या ईसाई या कुछ अन्य बनाने की मनोवृत्ति को धूल धूसरित कर स्थानीय समाजों में मिला देना होगा। तभी यह देश मजबूती के साथ दुनिया के सामने और साथ खड़ा हो सकेगा तथा और कुशलता और आतंकवाद से निजात पाने में दुनिया का सफल नेतृत्व कर सकेगा। निश्चित रूप से जातीय और सांप्रदायिक जड़ताओ से मुक्त होना बेहद कठिन है। लेकिन ऐसा न करके हम आने वाले समय में जो स्थितियां बन रही हैं उसमें देश व दुनिया की बड़ी आबादी के अस्तित्व को संकट में डालने जा रहे हैं—यह कोई भविष्यवाणी नहीं, अनुमान है।अफगानिस्तान दुनिया के लिए सबक है। यदि डॉगमा को खत्म न किया जाए तो वह भारत और पूरी दुनिया की बर्बादी का जरिया बन सकता है।
प्रोफेसर आर पी सिंह ( गोरखपुर विश्वविद्यालय )
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