बुद्ध धम्म
जीवन दु:ख नहीं है, जीवन में दु:ख है
जीवन में सुख भी है, दु:ख भी है
जब सुख होता है तब दु:ख विद्यमान नहीं होता है। लेकिन, जब दु:ख आता है तब सुख कहां? सुख- दु:ख और दु:ख- सुख जीवन में आते रहते हैं।
संसार में कोई भी प्राणी दु:ख नहीं चाहते हैं, सुख की ही सब कामना करते हैं। इस द्वंद्व को याद रखते हुए मनुष्य को अपने जीवन को सदाचार में ढालना होगा। कदाचार करके सुखी जीवन कैसे होगा? सदाचारी सदैव सुखी जीवन जीता है।
बोधिसत्व सिद्धार्थ ने देखा कि संसार में दु:ख है और बोधिसत्व ने यह भी देखा कि कोई-कोई लोग सुखी हैं। उनको संन्यासी के रूप में सुख दिखाई पड़ा। बोधिसत्व ने दु:ख का कारण और निवारण के लिए 29 वर्ष की आयु में अषाढ पूर्णिमा की रातको कपिलवस्तु को अलविदा कर महाभिनिष्क्रमण किया। 6 साल की तपस्या- ध्यान करके 35 साल की उम्र में वैशाख पूर्णिमा की रात को बोधगया में सम्यक सम्बोधी प्राप्त कर ली। उन्होंने दु:ख मुक्ति का मार्ग ढूंढ निकाला। बुद्ध ने दु:ख मुक्ति के मार्ग को प्रथम अषाढ़ पूर्णिमा के दिन सारनाथ में प्रकाशित किया। जिसे हम बुद्ध धम्म कहते है। बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद लगातार 45 वर्ष चारिका करते रहे और लोगों को दु:ख से मुक्ति पाने के लिए मार्गदर्शन देते रहे। ८० साल की उम्र होते वे महापरिनिर्वाण प्राप्त करने के लिए कुशीनगर पहुंचे। वहां, तथागत बुद्ध ने अंतिम उपदेश दिया-
” हन्द दानि भिक्खवे !
आमन्तयामि वो वयधम्मा संखारा ,
अप्पमादेन सम्पादेथाति “
अर्थात- हन्त ! भिक्खुओ, अब तुम्हें कहता हूँ-” संस्कार नाशवंत हैं ।अप्रमाद के साथ (निर्वाण) प्राप्त करो । संसारिक जीवन में सुखी रहने के लिए बुद्ध ने पाँच शील दिया।उसका अप्रमाद के साथ पालन करना चाहिए।
★ पँचशील ★
1- पाणातिपाता वेरमणी सिक्खापदं समादियामी ।
मैं अकारण प्राणी हिंसा न करने की शपथ ग्रहण करता हूँ ।
2- अदिन्नादाना वेरमणी सिक्खापदं समादियामी ।
मैं बिना पूर्व स्वीकृति के किसी की कोई वस्तु न लेने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ ।
3- कामेसु मिच्छाचारा वेरमणी सिक्खापदं समादियामि ।
मैं व्यभिचार न करने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ ।
4- मुसावादा वेरमणी सिक्खापदं समादिया़मि ।
मैं झूठ बोलने ,बकवास करने ,चुगली करने से विरत रहने की शिक्षा लेता हूँ ।
5- सुरामेरयमज्ज पमादट्ठाना वेरमणी सिक्खापदं समादियामी ।
मैं कच्ची व पक्की शराब ,मादक द्रव्यों के सेवन ,प्रमाद के स्थान जुआंघर आदि से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ ।
सामणेर के लिए 10 शील, भिक्षुओं के लिए 227 शील और भिक्षुणियों के लिए ३११ शील है।
इन शीलों पर चलने वाले कोई उपासक,उपासिका,सामणेर, अनागारिका, भिक्षु दु:खी नहीं होंगे। सुखी जीवन व्यतीत करेंगे ही।
( भंते नन्द रतन )
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