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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 18 May 2021 12:12 PM |   2016 views

राजकीय बौद्ध संग्रहालय गोरखपुर का इतिहास

मानव सभ्यता का इतिहास इस सत्य को उजागर करता है कि मनुष्य ने अपने अतीत को सुरक्षित रखने का प्रयास किया, क्योंकि विधाता की सृष्टि में मनुष्य उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। मनुष्य वर्तमान में जीता है, परम्परा प्रेमी होने के कारण मनुष्य ने विविध रूपों में अपने अतीत को संकलित और दर्शनीय बनाने की चेष्टा की है। संग्रहालय मनुष्य के उसी चेष्टा के सबल परिणाम है ।
 
इतिहास केवल घटनाओं का संकलन मात्र नहीं है। इतिहास हमें शिक्षा भी देता है और प्रेरणा भी। इतिहास अमूर्त होता है। संग्रहालय उसी इतिहास को मूर्त बनाते हैं अर्थात इतिहास के महत्वपूर्ण संदर्भों को स्थूल रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं।
 
मनुष्य का मन अमूर्त से उतना प्रभावित नही होता, जितना मूर्त से। जब हमें साकार स्मृति अपने अतीत की दिखाई देती है, तब अतीत हमारे मन में अधिक स्पष्ट उभरता है। संग्रहालय यही कार्य करते हैं।
 
आज इतिहास को पढ़ने पढ़ाने की जो दृष्टि हमारे विद्यालयों में अपनाई जा रही है उसमें सुधार होना चाहिए। इतिहास पढ़ने वाले विद्यार्थी इतिहास को अतीत के संदर्भ में ही पढ़ते हैं। अतीत की घटनाओं को याद कर लेना या अतीत के चरित्र की आलोचना पढ़कर याद कर लेना ही उनका उद्देश्य होता है, किन्तु अब समय आ गया है कि हम इतिहास के अध्ययन की अपनी दृष्टि बदलें। हमारा अतीत ही हमारे इस वर्तमान का जन्मदाता है और ‘‘आज‘‘ ही आगे चलकर अतीत बनेगा और भविष्य का निर्माण होगा। अतः अब अतीत को वर्तमान से जोड़कर देखने की आवश्यक्ता है। इसके लिए हमें संग्रहालयों की सहायता लेनी होगी। शिक्षण संस्थाओं एवं संग्रहालयों को जोड़े बगैर यह क्रान्तिकारी परिवर्तन नही हो सकता।
 
संग्रहालय की उत्पत्ति एवं विकास:
 
डनेमनउ  शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के डनेपवद शब्द से हुई है जिसका अर्थ है भ्वनेम व डिनेमेम या ब्मदजनतल व िडनेमेम अर्थात जहाँ कला और विज्ञान की देवियाँ निवास करती हैं।
 
संग्रहालय किसी न किसी रूप में प्राचीन समय से स्थापित होते रहे हैं। प्रस्तर मूर्तियाँ, हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्मों के धार्मिक कृतियों से सम्बन्धित साहित्य, धर्मग्रन्थ, बर्तन तथा अन्य वस्तुएं मन्दिरों को भेंट स्वरूप लोगों द्वारा दिया जाता था और इनका उपयोग कर ये वहीं पर रख दी जाती थीं और धीरे-धीरे इन वस्तुओं ने संग्रह का रूप ले लिया। कालान्तर में इन वस्तुओं का संग्रह राजाओं एवं समाज के प्रतिष्ठित वर्ग के लोगों द्वारा किया जाने लगा।
 
इस तरह के संग्रहों का उल्लेख प्राचीन भारतीय इतिहास एवं साहित्य जैसे कृष्ण धर्मोत्तर पुराण आदि में चित्रशालाओं के उल्लेख मिलते हैं, जहाँ चित्र संग्रहीत किए जाते थे। महाकाव्यों में भी चित्रशाला एवं विश्वकर्मा मन्दिरों का उल्लेख मिलता है। कई सदी पूर्व से भारत में जैन भण्डारों एवं हिन्दू मन्दिरों के लिए सचित्र पोथियाँ लिपिबद्ध की जाती रही है। ये चित्र धार्मिक अंकनो के साथ-साथ कला के अप्रतिबिम्ब उदाहरण भी हैं। भारतीय शासकों अथवा राजाओं-महाराजाओं के संग्रह पुस्तक प्रकाश, सरस्वती भण्डार, सूरतखाना आादि नामों से प्रसिद्ध रहे हैं। मुगल शासको के पुस्तकालय – कुतुबखाना एवं चित्र संग्रह – तस्वीरखाना आदि नामों से जाना जाता था। मुगलकाल में लेखकों एवं कलाकारों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त था। इसके पूर्व में भी समय-समय पर लेखकों और कलाकारों का आदर शासकों द्वारा किया जाता था तथा संरक्षण भी प्राप्त था।
 
मुगलकाल के बाद भारत में अंग्रेजी शासन की नींव पड़ी, जैसे मुगलकाल में भारतीय कला एवं संस्कृति को संरक्षण प्राप्त था उसी तरह अंग्रेजी शासनकाल में भी भारतीय कला एवं संस्कृति को संरक्षित  करने के कुछ कारगर प्रयास किये गये। भारतीय सांस्कृतिक सम्पदा से प्रभावित होकर सन् 1784 ई0 में सर विलियम जोन्स ने एशियाटिक सोसायटी आफ इण्डिया की स्थापना की और एशियाटिक सोसायटी के सतत् प्रयास से ही सन् 1814 ई0 में भारतीय संग्रहालय, कलकत्ता ;प्दकपंद डनेमनउ ज्ञवसबंजजंद्ध की स्थापना हुई, जिसे भारत का प्रथम संग्रहालय होने का गौरव प्राप्त हुआ। इसके बाद अनेक संग्रहालयों के स्थापना की प्रक्रिया शुरू हुई। 1851 ई. में केन्द्रीय संग्रहालय, मद्रास तथा इसी वर्ष बम्बई के ग्रांट मेडिकल कालेज में एशिया का प्रथम मेडिकल संग्रहालय भी स्थापित हुआ।
 
सन् 1863 ई0 में राज्य संग्रहालय, लखनऊ की स्थापना हुई जो उ0 प्र0 का पहला संग्रहालय है, 1865 में राजकीय संग्रहालय, मैसूर, 1874 ई. में राजकीय संग्रहालय मथुरा इत्यादि संग्रहालयों की स्थापना हुई। जब 1887 ई. में महारानी विक्टोरिया की जुबली मनायी गयी उस समय भारत में तीव्र गति से संग्रहालयों की स्थापना की गयी और सन् 1900 ई0 के पूर्व त्रिचुर, उदयपुर, भोपाल, जयपुर, राजकोट, भावनगर, त्रिचनापल्ली इत्यादि विभिन्न स्थानों पर लगभग 26 संग्रहालय स्थापित हो चुके थे।
 
1900 के बाद तथा 1947 के पूर्व संग्रहालयों के निर्माण को बहुत प्रोत्साहन मिला। 1861 ई0 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की स्थापना हुई और सर जाॅन मार्शल ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का विकास कर खुदाई से प्राप्त पुरा महत्व की वस्तुएं संरक्षित करने के उद्देश्य से अधिक संग्रहालय स्थापित किये। जिसमें 1901 में जूनागढ़, 1902 में धार, 1903 वारिपथ, 1904 में सारनाथ, 1906 आगरा, 1907 पेशावर, 1909 जोधपुर, 1910 खजुराहो, पूना, ढाका इत्यादि जगहों पर संग्रहालयों की स्थापना हुई। 1914 में प्रिन्स आफ वेल्स म्यूजियम, 1920 में भारत कला भवन, 1921 में विक्टोरिया मेमोरियल, कोलकाता, 1927 में त्रिवेन्द्रम, 1929 में बाॅटिनिकल म्यूजियम, इन्दौर, 1931 में इलाहाबाद संग्रहालय, 1939 में औधेगिक एवं वाणिज्यिक संग्रहालय, कलकत्ता, 1942 ई. में शांतिनिकेतन, भरतपुर, कोटा तथा 1946 ई. में जामनगर, कोल्हापुर एवं अहमदाबाद इत्यादि स्थानों पर संग्रहालयों की स्थापना हुई, फरवरी, 1977 में नेशनल रेल म्यूजियम, दिल्ली की स्थापना हुई।
 
1950 के आस-पास देश में संग्रहालयों की नयी भूमिका महसूस की जाने लगी और कई बहुआयामी संग्रहालयों की स्थापना हुई। 1955 में राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली की नींव पड़ी तथा 1960 में अपने नवनिर्मित भवन में आया जो जनपथ, नई दिल्ली में स्थित है। 1963 में राष्ट्रीय बाल संग्रहालय की स्थापना हुई।
 
इस तरह से आज तक भारत में लगभग 400 से अधिक संग्रहालयों की स्थापना हो चुकी है और लगातार संग्रहालयों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसी अनुक्रम में राजकीय बौद्ध संग्रहालय, गोरखपुर एक महत्वपूर्ण कड़ी है। 
 
राजकीय बौद्ध संग्रहालय, गोरखपुर की स्थापना:
 
पूर्वी उ0प्र0 में गोरखपुर परिक्षेत्र जैन एवं बौद्ध धर्म का प्रमुख स्थल के साथ ही साथ मौर्य, शुंग, कुषाण एवं गुप्त साम्राज्य का अभिन्न अंग रहा है तथा इसके साथ ही साथ बौद्ध धर्म के उद्भव और विकास का हृदय स्थल भी रहा है।
 
भगवान बुद्ध के जीवन एवं बौद्ध धर्म से सम्बन्धित स्थलों की क्रमबद्ध श्रृंखला दिखाई देती है जिसमें प्रमुख रूप से कपिलवस्तु, देवदह, कोलियों का रामग्राम, कोपिया एवं तथागत की महापरिनिर्वाण स्थली कुशीनगर का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरू गोरक्षनाथ की तपोभूमि भी गोरखपुर है और कालान्तर में गुरू गोरक्षनाथ के नाम पर ही इस शहर का नाम गोरखपुर पड़ा। इतना ही नहीं यह परिक्षेत्र मध्ययुगीन प्रसिद्ध संत, समाज सुधारक तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के पोषक संत कबीर की निर्वाण स्थली को भी अपने आंचल में सजोये हुए है।  
 
पूर्वी उ0 प्र0 की बहुमूल्य सांस्कृतिक संम्पदा के संरक्षण एवं संवर्धन के उद्देश्य से 23 अप्रैल 1987 को राजकीय बौद्ध संग्रहालय, गोरखपुर की स्थापना की गयी। संग्रहालय स्थापना के निर्णय के उपरान्त यह संग्रहालय किराये के भवन में संचालित हुआ और  04 मई, 1995 से वर्तमान राजकीय संग्रहालय भवन में संचालित है, जो रामगढ़ताल परियोजना क्षेत्र में स्थित है। संग्रहालय अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये लगातार प्रयासरत है जिसमें नित्य नये शोध एवं सांस्कृतिक संम्पदा एवं संस्कृति के संरक्षण के कार्य किये जा रहे हैं। 
 
संग्रहालय में नव पाषाण काल से लेकर आधुनिक काल तक की पुरासम्पदाओं का समृद्ध संग्रह है। जिसमें विशेष कर मृण मूर्तियों के संग्रह के लिये इस संग्रहालय को धनी माना जाता है। वैसे तो यहाँ पर प्रस्तर मूर्तियाँ, सिक्के, पाण्डुलिपियों, लधुचित्र, थंका, आभूषण एवं ताड़पत्र इत्यादि अनेक विषयों पर समृद्ध  संग्रह है, जिस पर नियमित रूप से रिसर्च स्कालर आकर शोधन कार्य करते हैं और संग्रहालय द्वारा भी नित्य नये आयाम जोड़े जा रहे हैं।  
 
वीथिकाओं में प्रदर्शन
 
संग्रहालय के पाँच वीथिकाओं में प्रदर्शन का कार्य किया गया है, उक्त वीथिकाओं में संग्रह से चयनित कलाकृतियों का प्रदर्शन किया गया है। प्रथम वीथिका बौद्ध धर्म के प्रख्यात विद्वान महापण्डित राहुल सांकृत्यायन जी को समर्पित है, जिसमें भगवान बुद्ध के विविध स्वरूपों एवं मुद्राओं का प्रदर्शन किया गया है। इस वीथिका में मथुरा कला एवं गांधार कला की सुन्दर बौद्ध कलाकृतियों का प्रदर्शन है। मथुरा शैली में निर्मित गुप्त कालीन अलंकृत प्रभामण्डल युक्त बुद्ध शीर्ष, जैन आयागपट्ट, शालभंजिका, अभिलिखित आागपटट तथा गांधार शैली में निर्मित बोधिसत्व, बुद्ध शीर्ष, मार का आक्रमण, स्थानक बुद्ध एवं पाल नरेशों के काल में पूर्वांचल पुनः बौद्ध धर्म के केन्द्र के रूप में विख्यात हुआ और बौद्ध धर्म से सम्बन्धित कलाकृतियों का केन्द्र बना, जिसमें सेे प्रमुख बुद्ध स्तूपों इत्यादि का प्रदर्शन दर्शनीय है।
 
द्वितीय पुरातत्व वीथिका में प्रस्तर एवं मृण कलाकृतियों के माध्यम से प्रदर्शन किया गया है। जिसमें नव पाषाण कालीन हैण्ड एक्स से लेकर मध्य पाषाण कालीन ब्लेड्स एवं व्यूरिन आदि का भी प्रदर्शन किया गया है। प्रस्तर मूर्तियों के सन्दर्भ में बात करें तो मध्यकालीन नृत्यरत अष्टभूजी गणेश की प्रतिमा, दशावतार विष्णु, नवग्रहपट्ट, सप्तमातृका पट्ट, चषकधारी कूबेर, त्रिशुलधारी शिव, वाराही, शेषशायी विष्णु, गरूणारूढ़ विष्णु एवं कसौटी पत्थर पर बनी पाल शैली की उमा-महेश्वर की प्रतिमा बहुत ही मनोहारी एवं दर्शनीय हैं। मृणमूर्तियों में मौर्य काल से लेकर गुप्त काल की मृणमूर्तियों का क्रमबद्ध तरीके से प्रदर्शन किया गया हैं। इसके अतिरिक्त मातृदेवियां, शिुशु का आहार करती डाकिनी (हारिति), नन्दी पर आसीन उमा, शुक सारिका, सिक्के ढालने के सांचे, विविध पशु आकृतियाँ एवं खिलौना गाड़ी इत्यादि सुन्दर मृणमूर्तियों का प्रदर्शन किया गया है। 
 
तृतीय वीथिका कला के विविध आयाम विभिन्न धातु, हाथी दाँत एवं स्टको के माध्यम से प्रदर्शन किया गया है। जिसमें भगवान बुद्ध तथा बौद्ध धर्म की अनेक कलाकृतियाँ जैसे वरद मुद्रा, अभय मुद्रा, भूमि स्पर्श मुद्रा में भगवान बुद्ध को प्रदर्शित किया गया है। इनमें अत्यधिक आकर्षक एवं दुर्लभ कलाकृतियों में हाथी दाँत से निर्मित महापरिनिर्वाण मुद्रा में भगवान बुद्ध, जैन स्थानक एवं स्थानक विष्णु की प्रतिमाएं है। इसके अतिरिक्त धातु प्रतिमाओं में तांत्रिक पुरूष, बज्र, लामा, लड्डू गोपाल, गज लक्ष्मी एवं शेषशायी विष्णु की सुन्दर प्रतिमाएं प्रदर्शित की गयी हैं। इस वीथिका में सबसे दुर्लभ बोधिसत्व शीर्ष है जो स्टको से निर्मित है। इसके अतिरिक्त अन्य घातु एवं काष्ठ कलाकृतियाँ भी प्रदर्शित की गयी हैं। 
 
चतुर्थ चित्रकला वीथिका है जो लधुचित्र एवं थंका पेटिंग के माध्यम से प्रदर्शित की गयी हैं। मध्ययुगीन भारतीय कला में लघुचित्रों के निर्माण की लोकप्रिय परम्परा को दृष्टिगत रखते हुए राजस्थानी एवं पहाड़ी चित्रकला के विभिन्न शैलियों का प्रतिनिधित्व करते हुए विषयवस्तु की दृष्टि से भी सम्मोहक लधुचित्रों में प्रमुख रूप से विभास रागिनी, पंचतंत्र, कामासुर वध, सारथी अरूण के साथ सूर्यनारायण, गरूणारूढ़ विष्णु, महिषासुर मर्दिनी, त्रिपुर सुन्दरी, संगीत का आनन्द लेते राधा-कृष्ण एवं रासलीला  इत्यादि महत्वपूर्ण कथानकों का प्रदर्शन लघुचित्रों के माध्यम से किया गया है। इसी वीथिका में ही थंका पेंटिंग के माध्यम से बौद्ध धर्म के कथानकों एवं बौद्ध धर्म प्रमुख देवी देवताओं को दिखाया गया है जिसमें प्रमुख रूप से चैबीसी, पद्मपाणि अवलोकितेश्वर, बौद्ध देवता मंजूश्री, बौद्ध देवता दोलमा, बौद्ध देवी चुन्दा, धम्मदेव इत्यादि को बहुत सुन्दर ढंग से प्रदर्शित किया गया है । 
 
पंचम वीथिका जैन वीथिका है जो जैन धर्म एवं उसके इतिहास पर प्रकाश डालती है। जिसमें जैन धर्म से सम्बन्धित कथानकों तथा जैन तीर्थंकरों को विशेष रूप से आकर्षित करने का प्रयास किया गया है। जैन पूजा के प्रथम सोपान आयागपट्ट मथुरा से प्राप्त हुए हैं, इन आयागपट्टों पर शुभ चिन्हों का अंकन जैसे स्वास्तिक, श्रीवत्स, मीन, पूर्णघट, माला आदि अष्टमांगलिक चिन्हों का अंकन मिलता है । कभी कभी आयागपट्टों के मध्य में ‘जिन’ आकृतियों के अंकन भी प्राप्त होते हैं। इस तरह से यह कहा जा सकता है कि जब प्रतीको की उपासना प्रचलन में थी और मानवाकृति में महापुररूषों की मूर्तियों का श्रीगणेश हो रहा था और इन्हें प्रथम शताब्दी ई0 के बीच मानते हैं। इस वीथिका में प्रमुख रूप से सर्वतोभद्रिका, 12वीं शती ई0 की अम्बिका प्रतिमा, चक्रेश्वरी, तीर्थकर नमिनाथ, नेमीनाथ, पाश्र्वनाथ और जैन धर्म के चैबीसवें तीर्थंकर महावीर एवं युगलिया इत्यादि प्रमुख कलाकृतियाँ का प्रदर्शन किया गया है। 
 
यह संग्रहालय भारतीय संस्कृति, कला एवं इतिहास के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये निरन्तर प्रयासरत है। संस्कृति-विरासत के प्रति जागरूकता के लिए संग्रहालय द्वारा अनेक कार्यक्रम जैसे अस्थाई प्रदर्शनी, व्याख्यान, फिल्म शो, प्रतियोगिताएं इत्यादि का आयोजन किया जाता है। संग्रहालय में एक संदर्भ ग्रन्थालय भी है जिसमें लगभग दो हजार पुस्तकों का संग्रह किया गया है। पुस्तकालय में रिसर्च स्काॅलर एवं अन्य जिज्ञासु जन सम्पर्क कर शोध कार्य करते रहते हैं। 
 
अन्त में यही कहा जा सकता है कि सौन्दर्य की चेतना ही मानव मन में कला की अभिरूचि जागृत करती है। संग्रहालय  इसी सुन्दरता की ओर दो कदम और चलने की प्रेरणा देते हैं।
 
-डॉ मनोज गौतम 
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