बैलगाड़ी व चीलगाड़ी
आज जो भी लोग उम्र के पाँच दशक पूरे कर चुके होंगे, वे कभी न कभी तांगे या इक्के पर जरूर बैठे होंगे।उनमें से कुछ लोग बैलगाड़ी पर भी बैठे होंगे,उस समय ज्यादातर मिट्टी के घरों व छप्पर की छतों की दुनिया थी।कुछ लोगों को उनमें कुछ साल रहने का भी संयोग मिला होगा।
तब की दुनिया में सड़कें थीं, मगर उन पर उतनी मोटरगाड़ियाँ न थीं। वे साइकिलों के लिए भी थीं और पैदल चलने वालों के लिए भी। उस दुनिया में दो और चीजें न थीं- प्लास्टिक रैपर्स/बोतल्स और मोबाईल फोन्स। उद्योग भी कम थे, जनसंख्या भी शायद आज की आधी रही होगी। हमारे होश तक सत्तर-पचहत्तर करोड़ थी, जन्म के समय तो और भी कम। अब यही कोई 140 करोड़ होने को है।
तो दुनिया बहुत साफ-सुथरी थी। आज के हिसाब से बहुत गंदी भी हो सकती है। मिट्टी के घर में कोई धूल क्या अलग होता, पर वह भी झाड़ कर गोबर से लीप दिया जाता था। गाँव का घूर भी बस वह होता था, जिसे आज की दुनिया में ऑर्गेनिक वेस्ट कहा जाता है। पानी खुले कुएँ से आता था और तालाब हमारे नहाने के वे अक्षय स्रोत होते थे, जिनके समक्ष कोई मानसरोवर नहीं होता था। उसमें श्वेत कुमुद खिलते थे, जिनके बीज को बेर्रा कहते थे व व्रत में हलवा बनता था। कोमल कुमुद नाल को इधर-उधर दो तरफ से तोड़ते हुए ऐसी माला बनाते थे, जिसका सुमेरु वह कुमुद ही होता था।
गाँव में कई बगीचे थे आम के, अपना भी कोई तीस-चालीस आमों का बाग था, जिससे होकर नहर गुजरती थी। वह बाग हमारे बचपन की गर्मियों का स्वर्गीय उद्यान हुआ करता था।
कोई ताल था, जिसमें लेड़ई घास बहुत होती थी, जिसे गायें भी नहीं खाती थीं। हम उँगलियों में फंदे डालकर उनकी कुर्सी सी बुनते थे। इन्हीं के बीच करमी का साग होता था, जिसके पोपले डंठल से पिपिहरी बजा लेते थे। बीच में छुईमुई घास बहुत होती थी, जिसे हम लाजवंती कहा करते थे। यहीं किसी बेचारा की बारी में गाय भैंसों को चराना हमारा पर्यटन होता था।
हमारे गाँव में ताड़ के पेड़ बहुत होते थे, कुछ लोग उसकी लबालब लबनी से ताड़ी भी पीते थे। इसके बिल्व के आकार के फल होते, मुस्लिम समुदाय में चाव से खाया जाता और सुखा कर भी गिरी जैसा कुछ बनाया जाता। बचपन में जनेऊ हो जाने से जाने क्यों हमारे लिए वह फल वर्जित कर दिया गया था। ताड़ के पेड़ पर चढ़ने की हसरत भी थी, जो कभी पूरी न हो सकी। बाद में जाना कि तालपत्र इसी के होते थे, जिन पर लिखा जाता था। हमारे जाने तो इसके पत्ते बेना यानी हाथ का पंखा बनाने के काम आते दिखते थे।
कोई बिरवाईं अलग से थी, जहां कुआँ, गायों का गौसार व कुछ फल सब्जी की जगह के साथ एक चक्की, पंपसेट वगैरह होते थे। यहाँ की झोपड़ी ही दिन भर का आश्रय थी, बैठक व बात की चौपाल भी। महुए केी घनी छाँव के साथ बाँस की बँसवारी होती थी। कुछ बीन जाति के लोग उनसे डलिया, दौरी, बेना जैसी चीजें बीना करते।
यहीं खलिहान में ईख का कोल्हू रहता, जिसे कल कहा जाता था। जब तक मोटर नहीं आई थी, तब तक बैल ही इसे चलाते थे, रेहट की तरह। और जहां तक याद जाती है, गुड़ का बनना एक सामाजिक उत्सव की तरह होता था।
तब भी उपकरण थे, सरौता था, कल था, चारा मशीन थी, चक्की थी, ऊखल-मूसल थे, ढेका था, दोन थी, पिछवाई थी,पर सब कुछ उस स्तर का था, जो बहुत प्राइमिटिव कही जाए।
तब कंधे व सिर पर गमछा लगाना गँवारपन न था। आज तक सभ्यता ने गमछे से ज्यादा उपयोगी कोई वस्त्र सामग्री नहीं बनायी, भला हो अंग्रेजों का जिन्होंने इसकी जगह टाई पहना दिया। जाने किस काम आती है वह?
वह दुनिया बैलगाड़ी की थी। तब जब आसमान में जहाज दिखते थे, कुछ लोग चीलगाड़ी कहते थे। कभी हवाई जहाज जब बहुत ऊपर जाते, तब उनकी आवाज न आती और पीछे धुएँ की दोहरी लकीर रह जाती, जो धीरे-धीरे फैल कर बादल बन जाती। हम उसे गुंगी जहाज कहते थे।
अब दुनिया चीलगाड़ी पर चलती है। हवा में उड़ने की अपनी कशिश है। मगर जमीन की भी अपनी जुंबिश है। आसमान में गूँगी चीलगाड़ी की धुएँ की दोहरी लकीर अब भी दिख जाती है, एक उल्टी दुनिया की कशिश खींचती है। मन कहता है, काश गूँगी चीलगाड़ी की धुएँ की यह दोहरी लकीर बैलगाड़ी की कच्ची सड़क पर बनी लीक होती। हम ऊँघते, अनमने चलते, चलते चले जाते, अनजान सुनसान सड़क पर, तीसरी कसम के हीरामन की तरह।
बचपन का सबका अपना नोस्टाल्जिया है। थोड़े बहुत भेद के साथ वह सबके जीवन का हिस्सा व किस्सा है, अगर वह हमउम्र है। वह नोस्टाल्जिया अब वैयक्तिक यूफोरिया व सामाजिक यूटोपिया बन गया है। जब नयी सभ्यता ने सब ओर श्मशान फैला दिया है, लोग साँस-साँस के लिए तड़प कर दम तोड़ रहे हैं, तब मन कहता है, जब यह सब ठीक हो जाए, चला जाऊँ वहीं बँसवारी या बिरवाई में, मिट्टी के घर में मिट्टी की काया को शांति से बैठे देखूँ, जब प्राण जायें, तो यह तड़प तो न रहे कि काश ये दो पल को मेरी मिट्टी मुझे मिल गई होती, इस माटी को।
कितना है बद-नसीब ‘ज़फ़र’ दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में- —-बहादुर शाह जफ़र
( कृष्ण कान्त पाठक , IAS )
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