हमारा समाज
हमारा मानव समाज विभिन्न प्रकार की समस्याओं से घिर गया है- चाहे वह समस्या बेरोजगारी की हो, या गरीबी की, या नैतिक पतन की, या सांस्कृतिक विकृति की, या सामाजिक भेद- विवेद की या अर्थ नैतिक अस्थिरता की या राजनीतिक उच्छृंखलता की या Religious dogma की या मानवता के हनन की।
उपर्युक्त सभी समस्याओं के बीच मनुष्य अमृत पुत्र है, देवपुत्र है कि वास्तविक छवि कहीं नहीं दिखती। कितनी भयावह स्थिति- परिस्थितियों के बीच से गुजर रहा है आज का मानव और एक अविभाज्य मानव समाज।
ऐसी परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार कौन है? इस तरह की परिस्थितियों का वास्तविक कारण क्या है? बगैर इसको जाने समस्या का समाधान संभव नहीं है। जैसा कि हम जानते हैं मनुष्य का अस्तित्व त्रिभंगी है- शरीर ,मन और आत्मा ।इन तीनों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता और साथ ही इनकी अपनी प्रयोजनीयता(essentiality), महत्ता(importance) एवं कार्य प्रणाली है। मन अनन्त का भूखा है और जब अनंत का भूखा मन आर्थिक क्षेत्र में जहां भी अपरिग्रह ( जीवन रक्षा हेतु प्रयोजनीय चीजों को छोड़ अतिरिक्त जागतिक भोग्य वस्तु का परित्याग) नीति का उल्लंघन करता है वही शोषण का सूत्रपात होता है। अमानवीय शोषण का ही परिणाम है कि कोटि-कोटि मनुष्य आज दरिद्र जीवन जी रहे हैं।
अपरिग्रह विरोधी मानसिकता के कारण जन्मी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का अभिशाप समग्र मानव समाज में व्यापक वंचना और जन दारिद्र तथा अन्य विविध तरह की समस्याओं को लाया है। अतः समाज को इस वैश्य शोषण से छुटकारा देने के लिए पूंजीवाद की समाप्ति अनिवार्य है। इसके लिए मानसाध्यात्मिक प्रक्रिया की सहायता से बेलगाम मानसिक ऐषणा और आभोग को नियंत्रण में लाना होगा। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि आज की इसतरह संपूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था देखते-देखते ढह जाएगी और संपूर्ण विश्व के समक्ष विपदा की घड़ी आ खड़ी होगी। आज महाशक्तियों की हेकड़ी निकल गई है।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का रक्षा कवच है प्रजातांत्रिक व्यवस्था। प्रजातांत्रिक व्यवस्था के आंचल तले अमानवीय शोषण मुलक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था खूब अच्छी तरह फलती फूलती है। निकट भविष्य में कोरोना से भी भयंकर वायरस का आगमन होना है। इसका प्रारंभिक संकेत तो सार्क के समय ही हो गया था। लेकिन हमने ध्यान नहीं दिया। सारे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा, आर्थिक सामाजिक व्यवस्थाएं, मानवता, मनुष्य को बचाने में असफल सिद्ध होंगे।
“जियो और जीने दो ” के मनस्तत्व पर आधारित सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को हमें स्वीकार करना होगा। मानसाध्यात्मिक प्रक्रिया को सीख कर हमें अपरिग्रह के सिद्धांत को स्वीकार करना होगा ।आज के वैज्ञानिक युग में अवैज्ञानिक पूर्व की घीसी पीटी व्यवस्था की चर्चा करने से, मन की बातें सुनाने से ना तो हम हमेशा के लिए जनता को भ्रम में ही रख सकते हैं और ना किसी समस्या का समाधान ही कर सकते हैं। आज हमें विशेष रूप से चिंतन करने की आवश्यकता है।
जिस देश के नागरिक न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति के अभाव में अस्तित्व रक्षा हेतु संघर्षरत हों, परिस्थिति के दबाव में जिस देश का नागरिक अनैतिकता ,अन्याय, आर्थिक ,राजनीतिक, सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक शोषण का दंश झेलने के लिए विवश हो, जिस देश की अधिसंख्य नागरिकों की स्वाभाविक स्वतंत्रता की वाहक ‘भाषा ‘को अवदमित कर बोलने की सामर्थ से वंचित कर गूंगा बहरा बना दिया गया हो ,जिस देश के नागरिकों के मन- प्राण को सही शिक्षा के अभाव में कुसंस्कार और अंधविश्वास फैला कर अंध पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया जा रहा हो और कूप मंडूक की तरह कूप में मरियल सांस लेने की व्यवस्था हो, उस देश में राष्ट्रीयता का गान किस काम का! राष्ट्रीयता का महत्व व मूल्य का उनके समक्ष क्या औचित्य है?
मनुष्य के लिए राष्ट्र, समाज, राजनीति, सरकार ,अर्थनीति ,धर्म, मंदिर ,मस्जिद ,गिरजा, गुरुद्वारा है। इन सभी व्यवस्थाओं से यदि मनुष्य की रक्षा, विकास का पथ प्रसारण नहीं हो सके तो इन सब की क्या आवश्यकता है?
मनुष्य इन संस्थाओं के लिए नहीं है। जिस क्षण इन संस्थाओं द्वारा मनुष्य का शोषण होने लगे, मनुष्य को नेस्तनाबूद करने हेतु दबाने -कुचलने का काम शुरू हो जाए ,उसी क्षण इन संस्थाओं का औचित्य समाप्त हो जाता है ।दुर्भाग्यवश आज सभी संस्थाएं मनुष्य के शोषण में व्यस्त हैं। इससे आज मनुष्य को बचाना ही होगा। इसके लिए एक सर्वथा नवीन आदर्शमय कल्याणकर व्यवस्था का निर्माण आज का राष्ट्र धर्म है|
( कृपा शंकर पाण्डेय ,बेतिया, बिहार )
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