मैं माटी हूँ
माटी हूँ, मैं माटी हूँ
अरसों से सावन की मैं प्यासी हूँ|
इस जेठ दुपहरी धूप में जैसे,
पवन का झोंका चलता है।
इन गरम हवाओं की सन सन से,
तब मेरा यौवन जलता है।
मन के अंदर सैलाब उठा जब,
सावन अंगड़ाइयां लेता है।
ये देख मयूरे मेरे मन का,
क्यों सिसक-सिसक के रोता है?
घनघोर अंधेरी आएगी,
जब साथ में सावन लाएगी।
सावन की रिमझिम बूंदों से,
मन का यौवन तब भींगेगा।
तू झूम-झूम के गाना फिरसे,
जब सावन तुझपे बरसेगा।
टिप-टिप करती बूंदों से तब,
महक उठूंगी मैं फिरसे।
माटी हूँ मैं माटी हूँ
अपने सावन की मैं प्यासी हूँ।
( अखिलेश सिंह कुशवाहा,लखनऊ )
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