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By : Nishpaksh Pratinidhi | Published Date : 27 May 2020 3:12 PM |   319 views

आर्थिक लोकतंत्र की आवश्यकता

 
1947 में भारतवर्ष अंग्रेजी दासता से मुक्त हुआ। साथ ही दो भागों में विभक्त हो गया  हिंदुस्तान और पाकिस्तान। कालांतर में पाकिस्तान का भी विभाजन हो गया पाकिस्तान और  पूर्वी बंगाल |
 
 भारतवर्ष के विभाजन के संदर्भ में अति संक्षिप्त चर्चा करना प्रासंगिक है। जैसा कि हम लोग जानते हैं विदेशी अंग्रेजी राष्ट्र के विरुद्ध भारतीय राष्ट्र का संग्राम प्रारंभ हुआ। भारतीयों ने इस स्वतंत्रता संग्राम में आर्थिक आजादी की जगह राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत की। अंग्रेजों ने भारतीयों के इस भूल-चूक का भरपूर लाभ प्राप्त किया। उन्हें भारतीय राष्ट्र को दो भागों में विभाजित करने का अवसर मिल गया और अंग्रेजों ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं छोड़ा। उन्होंने मुसलमानों में यह भावना भर दी कि भारत में हिंदू अधिक संख्या में हैं। इसलिए अंग्रेजों ने यदि भारत को छोड़ दिया तो सरकार स्वभावत:  हिंदुओं के हाथ में चली जाएगी और समूचे भारत के मुसलमानों को उनकी प्रजा के रूप में रहना होगा। इस कूटनीति से अंग्रेजों के लिए एक अच्छा परिणाम प्राप्त हुआ। मुसलमान नेताओं ने पूरी शक्ति के साथ इस हिंदू भय का प्रचार प्रारंभ किया और हिंदू भय से उत्पन्न इस एंटी हिंदू सेंटीमेंट के परिणाम स्वरूप मुसलमान नेताओं ने मुसलमान राष्ट्र के लिए एक पृथक देश की मांग कर दी। 
 
9 दिसंबर 1946 को जब संविधान सभा पहली बार  अधिविष्ठ हुई तब मुस्लिम लीग के सदस्य उपस्थित नहीं हुए और संविधान सभा ने मुस्लिम लीग के सदस्यों के बिना कार्य प्रारंभ किया। इसके बाद मुस्लिम लीग ने यह कहा कि भारत की संविधान सभा को विघटित किया जाना चाहिए क्योंकि उसमें भारत की सभी भागों के लोगों का पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं था। 26 जुलाई 1947 को गवर्नर जनरल ने पाकिस्तान के लिए पृथक संविधान सभा की स्थापना की घोषणा की। दो संविधान ,दो देश 14 व 15 अगस्त 1947 को अस्तित्व में आ गए। 
 
भारतीय संविधान बना | जिसमे  अंग्रेज साम्राज्यवादी ,भारतीय साम्राज्यवादी तथा भारतीय पूंजीपतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली शासक पार्टियां शमिल थी । भारत के संविधान में सारे प्रावधान इन्हीं अवसरवादियों के हित साधने और उन्हें शोषण के अवसर देने के लिए बनाए गए हैं। जनता को धोखा देने के लिए उन्हें सार्वभौमिक मताधिकार का अधिकार दिया गया है। करोड़ो भारतीय आज भी गरीब हैं, अंधविश्वासी और अशिक्षित हैं। लेकिन शोषणकर्ता झूठे वादों के सहारे प्रशासनिक सत्ता  के घोर  दुरुपयोग ,धमकी और दबाव के सहारे तथा वोटों में हेराफेरी करके सत्ता पर अपनी पकड़ लगातार बनाए हुए हैं।यह सिर्फ लोकतन्त्र का नाटक है। एक बार जब उन्हें सत्ता मिल जाती है तो 5 साल के लिए उन्हें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और राजनीति करने का अवसर मिल जाता है । 
 
 भारतीय संविधान के संदर्भ में  सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन के निम्न शब्द विशेष द्रष्टव्य है:–
  ” poor people who wander about, find no work and  starve, whose lives are a continual sound Of sore affliction and pinching poverty, cannot be proud of the Constitution or its law.
 
आज जिन देशों में लोकतंत्र स्थापित है, वहां धोखे से लोगों को विश्वास दिलाया गया है कि राजनीतिक लोकतंत्र से बेहतर कोई व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि राजनीतिक लोकतंत्र में जनता को वोट डालने का अधिकार दिया गया है। लेकिन साथ ही इस व्यवस्था ने लोगों से आर्थिक समानता के अधिकार को छीन लिया है। परिणाम स्वरूप वहां भारी आर्थिक असमानता है, अमीर और गरीब के बीच की दूरी बहुत है। जनता की क्रय क्षमता में अत्यंत  विषमता, रोजगार ,भोजन की उपलब्धता और सामाजिक सुरक्षा के बीच काफी अंतर है। भारत में प्रचलित लोकतंत्र भी एक राजनीतिक लोकतंत्र है जो कि गरीबों के शोषण की उत्तम प्रणाली के रूप में विकसित हुआ है और निसंदेह भारतीय लोकतंत्र आज गरीबों के शोषण की उत्तम प्रणाली भी बन चुका है।
 
 कोरोना वायरस से उत्पन्न वैश्विक महामारी की विभीषिका ने लोकतंत्र की बेहतर व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी है और यह पूर्णत:  सिद्ध हो गया है कि लोकतंत्र एक संवेदनहीन निकृष्ट, शासन प्रणाली का नामहै क्योंकि इसके जनप्रतिनिधि शोषक, संवेदनहीन व निकृष्ट हैं। लोकतंत्र के साथ पूंजी वाद का सम्बंध कोढ़ में खाज की तरह है। 
 
पूरे भारत वर्ष में प्रवासी मजदूरों की हालत को लेकर यह मांग उठने लगी है कि  राजनीतिक लोकतंत्र नहीं आर्थिक लोकतंत्र  आवश्यक है । आम जनता के शोषण को रोकने तथा उनकी दुर्दशा को कम करने का एकमात्र उपाय है विकेंद्रित अर्थव्यवस्था जिसको सभी आर्थिक क्षेत्रों में समान रूप से लागू किया जाना चाहिए। जमीनी स्तर पर लागू की जाने वाली कोई भी सकल योजना जिस जगह उसे लागू किया जाना है वहां से हजारों किलोमीटर दूर किसी वातानुकूलित कमरे में बैठकर नहीं बनाई जा सकती। दूरस्थ गांव की असली समस्याओं को केंद्रित अर्थव्यवस्था कभी भी ठीक से हल नहीं कर सकती। प्रत्येक आर्थिक योजना हमेशा एकदम निचले स्तर से शुरू की जानी चाहिए जहां स्थानीय लोगों के अनुभव, विशेषज्ञता और ज्ञान का भरपूर लाभ उठा कर एक सामाजिक आर्थिक इकाई के सभी सदस्यों को लाभान्वित किया जा सके। सभी आर्थिक समस्याओं का हल किया जा सकता है यदि आर्थिक नीति विकेंद्रित अर्थव्यवस्था के आधार पर बनाई जाए।
 
वस्तुत:  आर्थिक स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए स्थानीय लोगों में आर्थिक शक्ति निहित होनी चाहिए। यदि ऐसा होता तो लाखों लाख मजदूरों को आज कोरोना के वैश्विक महामारी में जान गवाने नहीं पड़ते और इनकी इतनी दुर्दशा नहीं होती। 
आर्थिक लोकतंत्र में स्थानीय लोगों को सामूहिक आवश्यकता के आधार पर वस्तुओं का उत्पादन करने और सभी कृषि और औद्योगिक वस्तुओं को वितरित करने के लिए सभी आर्थिक निर्णय करने का अधिकार होगा तभी एक समृद्ध देश की परिकल्पना  संभव है।
 
 क्रय शक्ति ही आर्थिक स्वालंबन (आत्मनिर्भरता )की आधारशिला है। क्रय शक्ति के अभाव में व्यक्ति ,परिवार ,समाज के विकास की परिकल्पना दिवास्वप्न है। असंभव है। इसलिए विकेंद्रित अर्थव्यवस्था पर आधारित संतुलित अर्थव्यवस्था के द्वारा परिवार, समाज, देश की इकाई व्यक्ति के योग्यता अनुरूप क्रय शक्ति को मौलिक अधिकार के रूप में सुनिश्चितता  प्रदान करना आर्थिक लोकतंत्र का पहला कदम है।
 
आइए हम सब मिलकर आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए अपनी-अपनी मिलित भूमिका सुनिश्चित करें और स्थानीय आर्थिक परिक्षेत्र में बाहरी शोषकों को शोषण बंद करने पर मजबूर करें। 
 
( कृपा शंकर पाण्डेय ,बेतिया, बिहार ) 
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