गणतंत्र अर्थात गण की गरिमा
देश आज अपना 71वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। जब भी हम गणतंत्र की कल्पना करते हैं तो गणराज्य के निवासियों की समता, संपन्नता के साथ संप्रभुता मानस पटल पर सामने आती है। भेदभाव से रहित एक ऐसी व्यवस्था, जहां मनुष्य अपनी आकांक्षा को जी सके। उसका विस्तार कर सके। गण की गरिमा हो, न कि तंत्र का आधिपत्य। तंत्र सिर्फ सहायक हो। बराबरी एवं अवसर का समतल संसार। उग्र-क्षेत्रवाद व उग्र-राष्ट्रवाद से व्यापक राष्ट्रीयता की ओर जाना आज की मांग है। संतुलित, समंजनवादी तरीके से ही आर्थिक हितों, सांस्कृतिक पक्षों को साधा जा सकता है। गणतंत्र हमारी बेहतर चिंताओं का कारक बने, हमें अग्रगामी बनाए। जितना हमने पाया है, उससे बहुत आगे जाना है। समाज व व्यवस्था के द्वंद्व से निकलकर सकारात्मक रूप से हमें नया गणतंत्र बनाना है।
गणतंत्र का संसार गण का तंत्र है, जिसमें बहुसांस्कृतिकता की ध्वनियां हैं। गणतंत्र का अर्थ बहुवचनात्मकता है, जिसमें अनेक धाराओं का सम्मान है, उनकी बराबरी की इज्जत है। अनेक संस्कृतियों व उपसंस्कृतियों में अंतर हो सकता है लेकिन उनके भीतर समंजन के रूप भी होते हैं। संस्कृतियों का आपसी समंजन ही सर्जनात्मकता है। यही बात विश्व को आगे ले जा सकती है। संस्कृतियों व समुदायों के बीच सहअस्तित्व ही दुनिया की स्वाधीनता के प्रति विश्वास दिला सकता है। अपनी संस्कृति से प्यार करना दूसरे से नफरत का तर्क नहीं। गणतंत्र में स्वतंत्रता आपके परिप्रेक्ष्य पर निर्भर करती है। यह एक ही समय में दोनों हो सकती है। यदि हम इसे संकुचित व बंधे रूप में लें तो यह बंधन बन सकती है। यदि इसे व्यापक रूप दें तथा सबके सम्मान व बराबरी के प्रश्न को प्रमुखता से रखें तो वह स्वाधीनता का आधार बन जाती है। अंतिम आदमी भी अभिव्यक्ति में सक्षम हो तो गणतंत्र है, स्वाधीनता है।
इसमें कोई शक नहीं कि पूरी दुनिया में स्वंतत्रता पर खतरे हैं तथा अराजक तत्व संस्कृति के शुभ पक्षों को चुनौती देते रहे हैं। स्वतंत्रता स्थगित करने का कोई तर्क नहीं। किंतु स्वतंत्रता नाजुक होती है। इसके लिए जागृत बने रहना जरूरी है। स्वतंत्रता समझदारी का विषय है। गणतंत्र में व्यक्तिगत व सामाजिक स्वतंत्रता दोनों शामिल हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता को सामाजिक स्वतंत्रता के अधीन करने से कई बार वैयक्तिक सृजनशीलता का अंत हो जाता है। दोनों बनी रहनी चाहिए। स्वतंत्रता लोकतंत्र का ही एक दूसरा रूप है। इसे किसी संविधान में यंत्रवत नहीं बांधा जा सकता। इसको अनुभव का विषय भी बनाया जाना चाहिए। यह लोक का यथार्थ है। यह लोक का स्वप्न भी है।
गणतंत्र में अधिनायकवाद के विरुद्ध संघर्षशील प्रेस का स्वतंत्र होना जरूरी है, वैचारिक स्वाधीनता तो चाहिए ही। इसलिए स्वाधीनता को बचाए रखने के लिए लोकतंत्र व आधुनिक राज्य का होना अपरिहार्य है। शक्ति के अनावश्यक विस्तार से भी स्वतंत्रता को खतरा होता है। राष्ट्रीय सीमाओं पर इसे देखा जा सकता है। यह एक कूटनीति से जुड़ा प्रश्न है। कुछ लोग कहते हैं कि समाजों व व्यक्ति के बीच स्वतंत्रता के सम्मान का आधार होना चाहिए तथा सरकार व नागरिक के बीच भी उसके अधिकारों व कर्तव्यों का पक्ष इस तरह हो कि किसी की स्वतंत्रता बाधित न हो। विचारधारा की तानाशाही से भी नागरिकों की स्वतंत्रता बाधित होती है तथा स्वतंत्र सम्मति नहीं आ पाती। यह बेहतर सृजनशीलता का विलोम है। अनेक पार्टियां अपनी धारा को ही उचित मानती हैं तथा अन्यों के उचित होने के उलट सोचती हैं। उन्हें दूसरों के सच को स्वीकार करना चाहिए। इसी में से स्वतंत्रता के यथार्थ व स्वप्न दोनों आएंगे। तकनीक की बढ़ती दखल व विचारों की विविधता की रोशनी में मनुष्य के रिश्तों का सबसे बड़ा आधार स्वतंत्रता है।
( परिचय दास के फेसबुक वाल से )