सत्य
शीर्षक है न , जरा देखो न
कहा छिपा है वो ,मै शिददत से ढूंढॅ रहा हू
जब मैंने समझा है उसे
क भी कसमो मे ,तो कभी वादों मे
कभी बेबसी मे तो कभी इरादों मे
एक दिन हा कहा था उसने भी
पर यकीं नही कर पाया ,करता भी कैसे
रंग -बिरंगे थे चोले ,हरे ,भगवे ,नीले ,सफ़ेद ,काले
जो उतरे एक दिन अपने आप ,पर वह नही मिला
फिर झाँका एक दिन ,उसकी गहरी आँखों मे
बदहवास सा ,हाफ्ता हुआ दिखा मुझे वो
लगा मै उसे कैद कर लूँगा ,हमेशा के लिए उसे
जैसे ही सहेजना चाहा मैंने ,रंग बदल गया था
उन आँखों का ,खबरों की रफ़्तार मे
उपवास ,रोजा ,इफ्तार मे ,नफरत मे, प्यार मे
कुछ बेसब्र इंतज़ार मे ,जारी रहेगी तलाश मेरी
उन लाशो के ढेर से ,गुजर कर भी
बुद्धत्व को पाने की ,थोड़ी झुझलाहट है मुझे
लौट के जाने दो मुझे
उस अबोध बच्ची की भोली आत्मा मे
कुछ मुखौटे उतारकर ,नोचने दो चेहरा मुझे
काटता नही नाख़ून ,आजकल वक़्त से
शायद खुरच दू कुछ परतें सत्य की
(आनंद चौहान बीकानेर ,राजस्थान )